अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 41
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
88
दे॒वैर्द॒त्तंमनु॑ना सा॒कमे॒तद्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्वश्च॒ वस्त्र॑म्। यो ब्र॒ह्मणे॑चिकि॒तुषे॒ ददा॑ति॒ स इद्रक्षां॑सि॒ तल्पा॑नि हन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वै: । द॒त्तम् । मनु॑ना । सा॒कम् । ए॒तत् । वाधू॑ऽयम्। वास॑: । व॒ध्व᳡: । च॒ । वस्त्र॑म् । य: । ब्र॒ह्मणे॑ । चि॒कि॒तुषे॑ । ददा॑ति । स: । इत् । रक्षां॑सि । तल्पा॑नि । ह॒न्ति॒ ॥२.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
देवैर्दत्तंमनुना साकमेतद्वाधूयं वासो वध्वश्च वस्त्रम्। यो ब्रह्मणेचिकितुषे ददाति स इद्रक्षांसि तल्पानि हन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठदेवै: । दत्तम् । मनुना । साकम् । एतत् । वाधूऽयम्। वास: । वध्व: । च । वस्त्रम् । य: । ब्रह्मणे । चिकितुषे । ददाति । स: । इत् । रक्षांसि । तल्पानि । हन्ति ॥२.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [विद्वान्पिता आदि] (मनुना साकम्) मननशील राजा के साथ (देवैः) विद्वानों करके (दत्तम्)दिया हुआ (एतत्) यह (वाधूयम्) विवाह का (वासः) पहिरने योग्य (वस्त्रम्) वस्त्र [योग्यता का चिह्न] (चिकितुषे) ज्ञानवान् (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [वेदवेत्ता वर] को (च) और (वध्वः=वध्वै) वधू को (ददाति) देता है, (सः इत्) वही (तल्पानि)प्रतिष्ठा [सम्मान, गौरव] में होनेवाले (रक्षांसि) दोषों को (हन्ति) नष्ट करताहै ॥४१॥
भावार्थ
पिता आदि गुरुजनों कोयोग्य है कि राजव्यवस्था के अनुसार आचार्या और आचार्य से सुशिक्षित ब्रह्मचारी, विद्यासूचक वस्त्र आदि से सुभूषित वधू-वर का विवाह करें, जिससे संसार में उन सबकीनिर्विघ्न प्रतिष्ठा बढ़े ॥४१॥
टिप्पणी
४१−(देवैः) विद्वद्भिः (दत्तम्) (मनुना)मननशीलेन राज्ञा (साकम्) सह (एतत्) दृश्यमानम् (वाधूयम्) वैवाहिकम् (वासः)परिधानीयम् (वध्वः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। इति षष्ठी। वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (यः) विद्वान् (ब्रह्मणे) वेदवेत्त्रेपुरुषाय (चिकितुषे) विद्यावते (ददाति) प्रयच्छति (सः) (इत्) एष (रक्षांसि)दोषान् (तल्पानि) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। तल प्रतिष्ठायां-प प्रत्ययः, ततःअर्शआद्यच्। तल्पे प्रतिष्ठायांसम्माने भवानि (हन्ति) नाशयति ॥
विषय
वाधूयं वासः, वध्व: च वस्त्रम्
पदार्थ
१. हे बृहस्पते और इन्द्र! आप विवाह की कामनावाले एक युवक के लिए (देवैः) = दिव्यगुणों के साथ तथा (मनुना साकम्) = ज्ञान के साथ (एतत्) = इस (वाधूयं वासः) = वधू के लिए उपयुक्त गृह को (च) = तथा (वध्य: वस्त्रम्) = वधू के वस्त्र को (दत्तम्) = देते हो। यहाँ प्रभु को बृहस्पति और इन्द्र नाम से स्मरण करते हुए यह संकेत हुआ है कि एक युवक को ज्ञान प्राप्त करना है और जितेन्द्रियता द्वारा दिव्यगुण-सम्पन्न [देवराट् इन्द्र] बनना है, तभी वह उत्तम पति बन पाएगा। गृहस्थ के सम्यक् विवाह के लिए यह भी आवश्यक है कि निवास के लिए एक गृह हो और उसमें वस्त्रादि की कमी न हो। २. इस घर को (यः) = जो (चिकितुषे ब्रह्मणे) = ज्ञानी ब्राह्मण के लिए (ददाति) = देता है, (सः इत्) = वही (तल्पानि रक्षांसि) = शैय्या-सम्बन्धी राक्षसीभावों को, अर्थात् भोगविलास की वृत्तियों को विनिष्ट कर डालता है। घर को ब्राह्मण के लिए देने का भाव यह है कि घर में ज्ञानी ब्राह्मण के आने पर घर को आपका ही है', ऐसा कहकर उस ज्ञानी अतिथि के प्रति अर्पित करते हैं। वे ज्ञानी भी स्नेहपूर्वक घर को उत्तम बनाने की प्रेरणा देते हैं। इसप्रकार इस घर में उस ज्ञानी के सम्पर्क के कारण पवित्र भावना बनी रहती है। ३. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के पति प्रभो! (च इन्द्रः साकम्) = और परमेश्वर्यशाली प्रभु साथ-साथ (युवम्) = आप दोनों (वधूयो:) = वधू की कामनावाले-गृहस्थ में प्रवेश की कामनावाले (मे) = मेरे लिए (यं ब्रह्मभागम्) = जिस ज्ञान के अंश को (वाधूयं वास:) = वधू के निवास के योग्य गृह को (च) = और (वध्वः वस्त्रम्) = वधू के वस्त्र को (दत्तः) = देते हो, आप उसको (ब्रह्मणे) = ज्ञानी ब्राह्मण के लिए (अनुमन्यमानौ) = अनुमति देते हुए ही (दत्तम्) = देते हो। आप मुझे यह अनुकूल मति भी प्राप्त कराते हो कि मैं उस घर को ज्ञानी ब्राह्मण के लिए अर्पित करनेवाला बनूं। यह ब्राह्मण-सत्कार ही इस घर को पवित्र बनाए रक्खेगा।
भावार्थ
'बृहस्पति व इन्द्र' नाम से प्रभु-स्मरण करता हुआ युवक ज्ञानी व जितेन्द्रिय बनकर दिव्यगुणों को धारण करे। गृहस्थ के निर्वाह के लिए गृहसामग्री को जुटाने के लिए यत्नशील हो। अपने घर को वह ज्ञानी ब्राह्मण के प्रति अर्पित करने की वृत्तिवाला बनकर घर को विलास का शिकार होने से बचा लेता है।
भाषार्थ
(देवैः) कन्यापक्ष के व्यवहार कुशल पुरुषों ने (मनुना) कन्या के मनस्वी अर्थात् विचारशील पिता के (साकम्) साथ मिल कर, (एतत्) यह (वाधूयम्, वासः) वधू की इच्छा वाले वर का वस्त्र या वधू के सहवास का अधिकार, (च) और (वध्वः वस्त्रम्) वधू का वस्त्र (दत्तम्) दिया है। (यः) जो कन्या का पिता (चिकितुषे) सम्यक्-ज्ञानी (ब्रह्मणे) वेदवेत्ता वर के लिए (ददाति) ये वैवाहिक वस्त्र देता है, (सः इद्) वह ब्रह्मा ही (तल्पानि = तल्प्यानि) चारपाई के (रक्षांसि) राक्षसों का (हन्ति) हनन करता है।
टिप्पणी
[देवैः = दिवु क्रीडा विजिगीषा व्यवहार..] [व्याख्या-विवाह कन्यापक्ष के देवों तथा देवियों के समक्ष तथा उन की अनुमति से होना चाहिये। कन्या का पिता मनु अर्थात् मननशील होना चाहिये, ताकि वह सब बातों का विचार कर अपनी योग्य कन्या का विवाह योग्य वर के साथ करे। कन्या का पिता वर-तथा-वधू को विवाह में वस्त्र आदि प्रदान करे। आदर्श विवाह ब्रह्मा-पदवी के ज्ञानी वर, तथा सुयोग्य विदुषी का होता है। ब्रह्मा पदवी उसे मिलती है जोकि चारों वेदों का विद्वान् हो। ऐसे विद्वान् तथा विदुषी का जब परस्पर विवाह होता है तब उन के गृहस्थ-जीवन में राक्षसों का प्रवेश नहीं होने पाता। अनुचित कामुकता से उत्पन्न दुष्कर्म ही राक्षस हैं। प्रकरण के अनुसार इन्हें ही चारपाई के राक्षस कहा है। ब्रह्मापदवी के वर तथा विदुषी वधू से संयम की आशा की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति गृहस्थ-धर्म के पालन के लिए चारपाई पर दिव्य भावनाओं से ही प्रेरित होकर आरूढ़ होंगे, राक्षसी-भावों के वशीभूत हो कर नहीं। कन्या का पिता, जब योग्य और संयमी वर के साथ अपनी कन्या का विवाह करता है, तब वह ही मानों चारपाई के राक्षसों के हनन में सहायता दे रहा होता है। चिकितुषे = अथवा चारपाई के राक्षसों के चिकित्सक ब्रह्मा के लिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(देवैः) देव, दानशील वर कन्या के निमित्त देने वाले और (मनुना) मनु = प्रजापति, वर कन्या के पिता द्वारा (दत्तम्) प्रदान किये (वाधूयम् वासः) वधू के वरण करनेहारे वर का वस्त्र (वध्वः च वस्त्रम्) वधू के विवाहकाल के वस्त्र (एतत्) इस सबको (साकम्) एक साथ ही (यः) जो पति (चिकितुषे ब्रह्मणे) विद्वान् ब्राह्मण को (ददाति) प्रदान करता है (सः इत्) वह ही (तल्पानि = तल्प्यानि) तल्प अर्थात् सेज के ऊपर होने वाले (रक्षांसि) विघ्नों या बाधक कारणों को (हन्ति) नाश कर देता है। १४। १। २५॥ मन्त्र में ‘वाध्यवस्त्र’ के दान का वर्णन पूर्व आ चुका है। फल यहां दर्शाते हैं।
टिप्पणी
(च०) ‘तल्पानि’ इति ह्विटनिकामितः। ‘तर्प्यानि’ इति पैप्प० सं०। (द्वि०) ‘वाधूयं वध्वो वासोस्याः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
The father who gives the bridal garments to the bride and wedding garments to the sagely and enlightened bridegroom provided by devas, noble people, along with Manu, thinking people of the community, protects the bridal bed against all evil and negativities.
Translation
Presented by the enlightened ones along with the thoughtful persons, this nuptial dress and the brides garment, whosoever gives to a learned intellectual person, he verily destroys the harmful germs of the marriage-bed.
Translation
He who hands over the garment of bride-groom provided by Manu, the father of the bride and the cloth of bride given by the learned parent and members of the bride-grooms' party, the learned Brahman, priest (to give both of them respectively the bride-groom and bride) drive away all the troubles and evils of bride's bed.
Translation
The father, who gives to the learned bridegroom and the bride, the nuptial garment, fit to be worn as a mark of learning and presented by the learned and the King, also removes the obstacles in the way of their fame and dignity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(देवैः) विद्वद्भिः (दत्तम्) (मनुना)मननशीलेन राज्ञा (साकम्) सह (एतत्) दृश्यमानम् (वाधूयम्) वैवाहिकम् (वासः)परिधानीयम् (वध्वः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा० २।३।६२। इति षष्ठी। वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (यः) विद्वान् (ब्रह्मणे) वेदवेत्त्रेपुरुषाय (चिकितुषे) विद्यावते (ददाति) प्रयच्छति (सः) (इत्) एष (रक्षांसि)दोषान् (तल्पानि) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। तल प्रतिष्ठायां-प प्रत्ययः, ततःअर्शआद्यच्। तल्पे प्रतिष्ठायांसम्माने भवानि (हन्ति) नाशयति ॥
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