अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 48
ऋषिः - आत्मा
देवता - सतः पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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अपा॒स्मत्तम॑उच्छतु॒ नीलं॑ पि॒शङ्ग॑मु॒त लोहि॑तं॒ यत्।नि॑र्दह॒नी या पृ॑षात॒क्यस्मिन्तांस्था॒णावध्या स॑जामि ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । अ॒स्मत् । तम॑: । उ॒च्छ॒तु॒ । नील॑म् । पि॒शङ्ग॑म् । उ॒त । लोहि॑तम् । यत् । नि॒:ऽद॒ह॒नी । या । पृ॒षा॒त॒की । अ॒स्मिन् । ताम् । स्था॒णौ । अधि॑ । आ । स॒जा॒मि॒ ॥२.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपास्मत्तमउच्छतु नीलं पिशङ्गमुत लोहितं यत्।निर्दहनी या पृषातक्यस्मिन्तांस्थाणावध्या सजामि ॥
स्वर रहित पद पाठअप । अस्मत् । तम: । उच्छतु । नीलम् । पिशङ्गम् । उत । लोहितम् । यत् । नि:ऽदहनी । या । पृषातकी । अस्मिन् । ताम् । स्थाणौ । अधि । आ । सजामि ॥२.४८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मत्) हमसे (तमः)अन्धकार (अप उच्छतु) बाहिर जावे, (उत) और [वह भी], (यत्) जो कुछ (नीलम्) नीला, (पिशङ्गम्) पीला और (लोहितम्) रक्त वर्ण [अशुद्ध वस्तु] है। (निर्दहनी) जलादेनेवाली (या) जो (पृषातकी) वृद्धि बाँधनेवाली [पीड़ा] (अस्मिन्) इस (स्थाणौ)स्थिर चित्तवाले मनुष्य में है, (ताम्) उस [पीड़ा] को (अधि) अधिकारपूर्वक (आसजामि) मैं बाँधता [रोकता हूँ] ॥४८॥
भावार्थ
मनुष्य स्थिरचित्तहोकर अपने शारीरिक, मानसिक और सामाजिक अशुद्धि, रोग आदि विघ्नों को हटावें॥४८॥
टिप्पणी
४८−(अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (तमः) तम खेदे-असुन्। अन्धकारः (अप उच्छतु)उच्छी विवासे। दूरे गच्छतु (नीलम्) (पिशङ्गम्) पीतवर्णम् (उत) अपि च (लोहितम्)रक्तवर्णम्। रोगविशिष्टं वस्तु (यत्) वस्तु (निर्दहनी) नितरां दहनशीला (या)पीडा) (पृषातकी) पृषु सेचने-क+बहुलमन्यत्रापि। उ० २।३७। अत बन्धने-क्वुन्, गौरादित्वाद् ङीष्। सेचनस्य वर्धनस्य बन्धनशीला निवारणशीला (अस्मिन्) (ताम्)पीडाम् (स्थाणौ) स्थिरस्वभावे मनुष्ये (अधि) अधिकृत्य (आ सजामि) षञ्ज सङ्गे।प्रबध्नामि। रुणध्मि ॥
विषय
'नीलं पिशङ्गं लोहितम्' तमः
पदार्थ
१. हे प्रभो! (अस्मत्) = हमसे (तमः अपउच्छतु) = अविद्यान्धकार दूर हो, (यत्) = जो अविद्यान्धकार (नीलम्) = अत्यन्त कृष्णवर्ण का है-अँधेरे को लाकर जो हमें प्रमाद, आलस्य व निद्रा में ले जानेवाला है, वह अविद्यान्धकार भी दूर हो [यत्] जो (पिशङ्गम्) = पिशङ्ग, कपिलवर्ण का है, जो हमें प्रत्येक वस्तु के विश्लेषण में प्रवृत्त करनेवाला है, जिसके कारण वस्तु का विश्लेषण करते हुए हम कर्तव्यकर्मों को भी विस्मृत कर देते हैं. यह भी एक आसंग ही है। इसे ही 'ज्ञानसंग' कहा गया है। (उत) = और यह अविद्यान्धकार भी (यत्) = जोकि (लोहितम्) = लालवर्ण का है। जो तेजस्विता के अतिरेक में हमें निरन्तर इधर-उधर भटकाता है, जो हमें यश व धन की कामना से बाँधकर कर्तव्यविमुख कर देता है। २. (निर्दहनी) = निश्चय से जलन को उत्पन्न करनेवाली (या) = जो (पृषातकी) = [पृष् vese, pain, veary] अन्ततः पीड़ित करनेवाली यह अविद्या है, (ताम्) = इस अविद्या को (अस्मिन् स्थाणी) = इस वृक्ष के दूंठ में (अध्यासजामि) = आसक्त करता हूँ। उस अविद्या को इन स्थानों को अर्पित करके मैं अविद्या से मुक्त होता हूँ। 'स्थाणु' शब्द का अर्थ प्रभु भी है। उस प्रभु में स्थित हुआ-हुआ मैं इस अविद्या को अपने से दूर करता हूँ और इन वृक्षों में उसे स्थापित करता हूँ।
भावार्थ
हम सब प्रकार के अज्ञान को अपने से दूर करें । प्रभु का स्मरण हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाएगा।
भाषार्थ
(तमः) अज्ञानान्धकार, तथा (यद्) जो (नीलम) तमोगुणी कर्म, (लोहितम्) रजोगुणी कर्म, (उत) और (पिशङ्गम्) तमोगुण और रजोगुण के मिश्रण से उत्पन्न कर्म है, वह (अम्मत्) हम से (अप उच्छतु) पृथक हो जाय। (या) जो (निर्दहनी) निश्चित-दाह अर्थात् सन्ताप देने वाली (पृषातकी) बिन्दु सदृश धब्बों वाली या बाण के सदृश दुःख दायिका प्रकृति है (ताम्) उसे, (अस्मिन्) इस (स्थाणौ अधि) स्थिर, कूटस्थ, एकरस परमेश्वर में (आ सजामि) मैं आसक्त करता हूं, सौंपता हूं।
टिप्पणी
[उच्छतु=उच्छी विवासे, निवास से पृथक् करना, विगत करना। पृषातकी१=पृषक्त=वाण, तीर, तद्वत् दुःखदायिका प्रकृति। पृषक्त का रूपान्तर=पृषातकी। अथवा पृषतः= बिन्दुसदृश धब्बों वाला हरिण। पृषतक=संज्ञायां कन्। पृषतकी=धब्बेदार मृगी, तद्वत् पृषातकी१ धब्बेदार प्रकृत। स्थाणु=स्थिर, कुटस्थ, एकरस परमेश्वर। यथा “स स्थाणुः स्थिर भक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः” (विक्रमोवशीय, कालिदास)] [व्याख्या-तमस् अर्थात् अज्ञान को यजुर्वेद (४०।१२) में अन्धं-तमस् कहा है। केवल अपराविद्या के उपासक अन्धं-तमः में प्रविष्ट होते हैं, और केवल पराविद्या में रत “और अधिक” अन्धं-तमः में प्रविष्ट होते हैं। अतः अपराविद्या और पराविद्या इन दोनों के ज्ञाता अज्ञांनान्धकार से छुटकारा पा सकते हैं। मन्त्र में तमस् से पृथक् होने का अभिप्राय है अपराविद्या और पराविद्या की प्राप्ति के लिए सदा, गृहस्थ-जीवन में भी, यत्न करते रहना। अपराविद्या की प्राप्ति से अभ्युदय की सिद्धि होती है, और पराविद्या की प्राप्ति से निःश्रेयस सिद्ध होता है। तमस् अर्थात् अज्ञानान्धकार के रहते ३ प्रकार के कर्म होते हैं। (क) तामसिक-कर्म, जिन्हें कि मन्त्र में “नीलम्” कहा है। तथा (ख) राजसिक कर्म, जिन्हें कि “लोहितम्” कहा है। और तीसरे प्रकार के वे कर्म जिन में कि तमोगुण और रजोगुण मिश्रित रहते हैं, ऐसे कर्मों को मन्त्र में “पिशङ्गम्” कहा है। वैदिक साहित्य में प्रकृति के स्वरूप को दर्शाने के लिए रजोगुण को लोहित, सत्त्वगुण को शुक्ल, और तमोगुण को कृष्ण कहा है। यथा-“अजमेकां लोहित शुक्लकृष्णाम्” (श्वेता० उप० ४।५)। अजा का अभिप्राय है “न पैदा होने वाली नित्य प्रकृति”। पिशङ्ग का अर्थ है ‘REDDISH BROWN१” (आप्टे), लालमिश्रित भूरा रंग। और BROWN का अर्थ है “DARK OR Dusky inclinig to red”। इसलिए पिशङ्ग कर्म है “लोहितमिश्रित तमः” रूपी कर्म। अर्थात् रजोगुणमिश्रित तमोगुणी कर्म। इन तीनों प्रकार के कर्मों से अर्थात् नीलम्, लोहितम्, पिशङ्गम,-रूपी कर्मों से, पृथक होने की प्रार्थना मन्त्र में की गई है। ये तीन प्रकार के क्रम अज्ञानांधकार के परिणाम है। अतः शुक्ल कर्मों अर्थात् सात्त्विक कर्मों की उपादेयता अर्थापन्न है। गृहस्थ-जीवन में यथा सम्भव शुक्ल कर्मों को ही करना चाहिये। मन्त्र में प्रकृति को “पृषातकी” कहा है। पृषातकी के दो अर्थ दिए हैं, (१) बिन्दु सदृश धब्बों वाली मृगी के सदृश, प्रकृति। प्रकृति बिन्दुमयी है, इसका अभिप्राय यह है कि प्रकृति पट या चादर के सदृश, अपने रजस्, तमस् सत्त्व के अंशों में फैली हुई नहीं, अपितु रजस्, तमस् और सत्त्व में से प्रत्येक छोटे छोटे वर्णों के समूहरूप है, बिन्दुरूप हैं, परम-अणुरूप हैं। (२) पृषातकी को बाण या तीर रूप भी कहा है। बाण या तीर शरीर में प्रविष्ट हुए दुःखप्रद होते हैं, इसी प्रकार पृषातकी-प्रकृति भी विवेकी के लिए सदा दुःखमयी प्रकट होती है। यथा “दुःखमेव सर्व विवेकिनः” (योग २।१५)। इस भाव को दर्शाने के लिए मन्त्र में पृषातकी का विशेषण “निर्दहनी” दिया है, अर्थात् निश्चित रूप में दाह-सन्ताप देने वाली। शरीर के रहते प्रकृति तथा प्रकृतिजन्य पदार्थों से छुटकारा पाना असम्भव है। इसलिये प्रकृति को परमेश्वर के प्रति आसक्त करने, या सौंपने का अभिप्राय केवल यही है कि प्रकृति के पदार्थों में मोह-ममता को त्याग कर प्रकृति को निःश्रेयस में साधन मान कर, निष्काम भाव से उस का उपयोग करना। गृहस्थी के गृहस्थजीवन का यह सर्वोच्च लक्ष्य है। अर्थात् गृहस्थी को केवल अभ्युदय के लिए ही यत्न न करना चाहिए, अपितु अभ्युदय की प्राप्ति को निःश्रेयस की प्राप्ति में साधन मान कर उस का उपार्जन करना चाहिये। परम निष्काम-भाव।] [१.“पृषोदर” आदि की तरह साधु। “पृषातकी” का यह अर्थ भी हो सकता है कि “वस्तुओं के प्रति हमारे जीवनों में राग, द्वेष, मोह आदि सींच कर, हमें आतंकमय तथा कुछुजीवी करने वाली प्रकृति। पृष् (सेचने)+आतंकमयी (तकि कृच्छ जीवने)। “ह्विटनी” ने इस मन्त्र की टिप्पणी में पृषातकी का अर्थ किया है “She is perhaps the female demon” अर्थात् शायद यह भूतप्रेत या पिशाची है। मैंने जो अर्थ पृषातकी के लिए दिए हैं वे अनुमान रूप ही है। परन्तु मन्त्रार्थ में सङ्गत अवस्य हो सकते हैं।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(नीलम्) नीला (पिशङ्गम्) पीला (उत) और (यत्) जो (लोहितम्) लाल रंग का (तमः) पाप या मलिन पदार्थ है वह (अस्मत्) हम से (अप उच्छतु) दूर हो। (या) जो (निर्दहनी) जलानेहारी (पृषातकी) स्पर्श से ही दुःख देने वाली, रोगादि पीड़ा य अविद्या (अस्मिन्) इस वरवधू के दिये वस्त्र में या संसार में (तां) उसको (स्थाणौ) स्थाणु, वृक्ष में या परब्रह्म में (अधि आसजामि) लगा दूं। अर्थात् वस्त्रगत सब दुष्प्रभावों को वृक्ष के प्रभाव से और अविद्या के दुष्प्रभावों को ब्रह्म के आश्रय से दूर करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Whatever is dark in us, let it be off from us, let the light come at dawn. Whatever is vitiated, blue, pale or ruddy, whatever is burning, whatever wearisome or exhausting, I assign to the central stability of health and regeneration.
Translation
May the gloom, that is blue, brown and also red, go away from us. What burning disease (prstaki) is in this (nuptial garment), that I fasten to this wooden post.
Translation
Whatever blue, whatever pale, whatever red darkness surround us be away from us. That Paishataki, the contagious diseases which creates burning I fasten, to this Sthanu, the eternal infinitesimal.
Translation
May the blue, the yellow, and the red dirt of sin remain away from us. May I remove with the help of God, the burning, painful ignorance that exists in the world.
Footnote
l: Husband.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४८−(अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (तमः) तम खेदे-असुन्। अन्धकारः (अप उच्छतु)उच्छी विवासे। दूरे गच्छतु (नीलम्) (पिशङ्गम्) पीतवर्णम् (उत) अपि च (लोहितम्)रक्तवर्णम्। रोगविशिष्टं वस्तु (यत्) वस्तु (निर्दहनी) नितरां दहनशीला (या)पीडा) (पृषातकी) पृषु सेचने-क+बहुलमन्यत्रापि। उ० २।३७। अत बन्धने-क्वुन्, गौरादित्वाद् ङीष्। सेचनस्य वर्धनस्य बन्धनशीला निवारणशीला (अस्मिन्) (ताम्)पीडाम् (स्थाणौ) स्थिरस्वभावे मनुष्ये (अधि) अधिकृत्य (आ सजामि) षञ्ज सङ्गे।प्रबध्नामि। रुणध्मि ॥
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