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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 47
सूक्त - आत्मा
देवता - पथ्याबृहती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
य ऋ॒तेचि॑दभि॒श्रिषः॑ पु॒रा ज॒त्रुभ्य॑ आ॒तृदः॑। सन्धा॑ता स॒न्धिं म॒घवा॑पुरू॒वसु॒र्निष्क॑र्ता॒ विह्रु॑तं॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ऋ॒ते । चि॒त् । अ॒भि॒ऽश्रिष॑: । पु॒रा । ज॒त्रुऽभ्य॑: । आ॒ऽतृद॑: । सम्ऽधा॑ता । स॒म्ऽधिम् । म॒ऽघवा॑ । पु॒रु॒ऽवसु॑: । नि:ऽक॑र्ता । विऽह्रु॑तम् । पुन॑: ॥२.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋतेचिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः। सन्धाता सन्धिं मघवापुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ऋते । चित् । अभिऽश्रिष: । पुरा । जत्रुऽभ्य: । आऽतृद: । सम्ऽधाता । सम्ऽधिम् । मऽघवा । पुरुऽवसु: । नि:ऽकर्ता । विऽह्रुतम् । पुन: ॥२.४७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 47
विषय - शरीर की अद्भुत रचना
पदार्थ -
१. (य:) = जो प्रभु (अभिनिषः ऋतेचित्) = सन्धान द्रव्य के बिना ही (जबुभ्यः आतदः पुरा) = ग्रीवास्थिवाले स्थान से कट जाने से पूर्व (सन्धिं सन्धाता) = जोड़ को फिर से मिला देनेवाले हैं। वे प्रभु सचमुच (मघवा) = परम ऐश्वर्यवाले हैं। प्रभु ने शरीर की व्यवस्था ही इसप्रकार से की है कि सब बाव फिर से भर जाते हैं। गर्दन ही कट जाए तो बात अलग है, अन्यथा सब कटाव फिर से जुड़ जाते हैं। २. (पूरू वसुः) = वे पालक और पूरक वसुओंवाले प्रभु (पुन:) = फिर से (विहृतं निष्कर्ता) = कटे हुए को ठीक कर देनेवाले हैं। सब कटाओं को फिर से भर देते हैं। शरीर में प्रभु ने यह अद्भुत ही व्यवस्था की है।
भावार्थ -
शरीर में प्रभु ने क्या ही अद्भुत रचना की है कि बड़े-से-बड़ा घाव भी फिर से भर जाता है। हम भी प्रभुस्मरण करते हुए पारस्परिक मानस घावों को फिर से भरनेवाले हों।
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