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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    या ओष॑धयो॒ यान॒द्यो॒ यानि॒ क्षेत्रा॑णि॒ या वना॑। तास्त्वा॑ वधु प्र॒जाव॑तीं॒ पत्ये॑रक्षन्तु र॒क्षसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । ओष॑धय: । या: । न॒द्य᳡: । यानि॑ । क्षेत्रा॑णि । या । वना॑ । ता: । त्वा॒ । व॒धु॒ । प्र॒जाऽव॑तीम् । पत्ये॑ । र॒क्ष॒न्तु॒ । र॒क्षस॑: ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ओषधयो यानद्यो यानि क्षेत्राणि या वना। तास्त्वा वधु प्रजावतीं पत्येरक्षन्तु रक्षसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । ओषधय: । या: । नद्य: । यानि । क्षेत्राणि । या । वना । ता: । त्वा । वधु । प्रजाऽवतीम् । पत्ये । रक्षन्तु । रक्षस: ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    (याः ओषधयः) = जो ओषधियाँ हैं, (याः नद्यः) = जो नदियाँ हैं (यानि क्षेत्राणि) = जो क्षेत्र [खेत] हैं (या वना) = जो भी वन हैं, हे (वधु) = सन्तान को वहन करनेवाली पनि! (ता:) = वे सब (त्वा) = तुझे (पत्ये) = इस पति के हित के लिए, इसके वंश के अविच्छेद के लिए (प्रजावतीम्) = प्रशस्त प्रजा [सन्तान]-बाला करें। ये सब तुझे (रक्षस:) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमियों से (रक्षन्तु) = रक्षित करें।

    भावार्थ -

    घर का सारा वातावरण इसप्रकार का हो कि वहाँ रोगकृमिजनित रोगों का भय न हो। इस स्वस्थ वातावरण में गृहपत्नी उत्तम सन्तान को जन्म देती हुई पति के वंश के अविच्छेद का कारण बने।

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