अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 19
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
सर्वाः॑ सम॒ग्रा ओष॑धी॒र्बोध॑न्तु॒ वच॑सो॒ मम॑। यथे॒मं पा॒रया॑मसि॒ पुरु॑षं दुरि॒तादधि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वा॑: । स॒म्ऽअ॒ग्रा: । ओष॑धी: । बोध॑न्तु । वच॑स: । मम॑ । यथा॑ । इ॒मम् । पा॒रया॑मसि । पुरु॑षम् । दु॒:ऽइ॒तात् । अधि॑॥७.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वाः समग्रा ओषधीर्बोधन्तु वचसो मम। यथेमं पारयामसि पुरुषं दुरितादधि ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वा: । सम्ऽअग्रा: । ओषधी: । बोधन्तु । वचस: । मम । यथा । इमम् । पारयामसि । पुरुषम् । दु:ऽइतात् । अधि॥७.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 19
पदार्थ -
१. (अहम्) = मैं (याः च वीरुधः वेद) = जिन लताओं को निश्चय से जानता हूँ, (याः च) = और जिनको (चक्षुषा पश्यामि) = आँख से देखता हूँ, (अज्ञाता: च याः जानीमः) = और आज तक अज्ञात जिन ओषधियों को हम अब जानने लगे हैं, (च) = और (यासु) = जिनमें (संभृतम्) = सम्यक् भरणशक्ति को (विना) = हम जानते हैं, २. वे (सर्वा:) = सब (समग्रा:) = सम्पूर्ण 'मूल, मध्य व अग्न' भाग समेत (ओषधी:) = ओषधियौं (मम वचस:) = मेरे वचन से बोधन्तु यह समझ लें (यथा) = जिससे (इमं पुरुषम्) = इस रोग-पीड़ित पुरुष को (दुरितात् अधि पारयामसि) = दुःखप्रद रोग से-रोगजनित कष्ट से पार लगा दें। एक वैद्य ओषधियों को सम्बोधन करता हुआ कहता है कि 'इस पुरुष को अवश्य नीरोग करना हो है।
भावार्थ -
कुछ औषध हमें ज्ञात हैं, बहुत-से अज्ञात हैं। कई अज्ञात औषधों को समय प्रवाई में हम जान पाते हैं। इन सब औषधों के सम्यक् प्रयोग से रुग्ण पुरुष को रोग-कष्ट से मुक्त किया जाए।
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