अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - उपरिष्टाद्भुरिग्बृहती
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
त्राय॑न्तामि॒मं पुरु॑षं॒ यक्ष्मा॑द्दे॒वेषि॑ता॒दधि॑। यासां॒ द्यौष्पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता स॑मु॒द्रो मूलं॑ वी॒रुधां॑ ब॒भूव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्राय॑न्ताम् । इ॒मम् । पुरु॑षम् । यक्ष्मा॑त् । दे॒वऽइ॑षितात् । अधि॑ । यासा॑म् । द्यौ: । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता ।स॒मु॒द्र: । मूल॑म् । वी॒रुधा॑म् । ब॒भूव॑ ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रायन्तामिमं पुरुषं यक्ष्माद्देवेषितादधि। यासां द्यौष्पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव ॥
स्वर रहित पद पाठत्रायन्ताम् । इमम् । पुरुषम् । यक्ष्मात् । देवऽइषितात् । अधि । यासाम् । द्यौ: । पिता । पृथिवी । माता ।समुद्र: । मूलम् । वीरुधाम् । बभूव ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - देवेषितात् यक्ष्मात्
पदार्थ -
१. (यासाम्) = जिन (वीरुधाम्) = बेलों का-ओषधियों का (द्यौः पिता) = धुलोकस्थ सूर्य ही पिता है-सूर्य ही इनमें प्राणदायी तत्त्वों की स्थापना करता है, वही इनके परिपाक का कारण बनता है। (पृथिवी माता) = यह भूमि ही इन वीरुधों की माता है, इसी से इन्हें रस व पुष्टि प्राप्त होती है। (समुद्रः मूलं बभूव) = समुद्र इनका मूल है, समुद्र से ही बाष्पीभूत हुआ-हुआ जल मेघरूप में परिणत होकर इन्हें सींचता है। ये वीरुध (इमं पुरुषम्) = इस पुरुष को (देवेषितात्) = [दिवु क्रीडायाम्] विषयक्रीड़ा द्वारा प्राप्त हुए-हुए (यक्ष्मात्) = राजयक्ष्मा रोग से (अधिनायन्ताम्) = बचाएँ।
भावार्थ -
विषयों में अतिप्रसक्ति से रोग उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। इन रोगों को उचित औषध-प्रयोग से दूर किया जाए।
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