अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 21
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
उज्जि॑हीध्वे स्त॒नय॑त्यभि॒क्रन्द॑त्योषधीः। य॒दा वः॑ पृश्निमातरः प॒र्जन्यो॒ रेत॒साव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । जि॒ही॒ध्वे॒ । स्त॒नय॑ति । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑ति । ओ॒ष॒धी॒: । य॒दा । व॒: । पृ॒श्नि॒ऽमा॒त॒र॒: । प॒र्जन्य॑: । रेत॑सा । अव॑ति ॥७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः। यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । जिहीध्वे । स्तनयति । अभिऽक्रन्दति । ओषधी: । यदा । व: । पृश्निऽमातर: । पर्जन्य: । रेतसा । अवति ॥७.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 21
विषय - पृश्निमातरः [ओषधीः]
पदार्थ -
१. हे (पृश्निमातर:) = [पृश्नि-संस्पष्टा रसान्–नि०] रसों को अपने अन्दर ले-लेने में समर्थ पृथिवी माता से उत्पन्न (ओषधी:) = ओषधियो! (यदा) = जब (पर्जन्य:) = मेघ (स्तनयति) = गरजता है, (अभिक्रन्दति) = खूब ही ध्वनि करता है तब तुम (उजिहीध्वे) = ऊपर उठती हो-प्रसन्न होती हो। उस समय यह (मेघ व:) = तुम्हें (रेतसा) = उदक से-जल से (अवति) = प्रीणित करता है। २. मेष का गर्जन मानो भूमि में प्रसुप्त ओषधियों को ललकारता है, तब वे ओषधियाँ भी अपना सिर ऊपर उठाती हैं। यह पर्जन्य उन-उन ओषधियों को वृष्टि-जल से प्रीणित करता है। पृथिवी इन ओषधियों की माता है तो मेघ इनका पितृ-स्थानीय होता है।
भावार्थ -
भूमि में वृष्टि-जल में उत्पन्न हुई ओषधियाँ वस्तुत: ओषधियाँ हैं-ये हमारे शरीर में उत्पन्न दोषों का दहन करनेवाली हैं।
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