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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 26
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त

    याव॑तीषु मनु॒ष्या भेष॒जं भि॒षजो॑ वि॒दुः। ताव॑तीर्वि॒श्वभे॑षजी॒रा भ॑रामि॒ त्वाम॒भि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑तीषु । म॒नु॒ष्या᳡: । भे॒ष॒जम् । भि॒षज॑: । वि॒दु: । ताव॑ती: । वि॒श्वऽभे॑षजी: । आ । भ॒रा॒मि॒ । त्वाम्‌ । अ॒भि ॥७.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः। तावतीर्विश्वभेषजीरा भरामि त्वामभि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावतीषु । मनुष्या: । भेषजम् । भिषज: । विदु: । तावती: । विश्वऽभेषजी: । आ । भरामि । त्वाम्‌ । अभि ॥७.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    १. (यावतीषु) = जितनी बीरुधों में (भिषजः मनुष्या:) = वैद्य लोग (भेषजं विदु:) = रोग की चिकित्सा करनेवाले औषध को जानते हैं, (तावती:) = उतनी (विश्वभेषजी:) = सब रोगों का प्रतीकार करनेवाली वीरुधों को (त्वां अभि आभरामि) = तुझे चारों ओर से प्राप्त कराता हैं।

    भावार्थ -

    औषध-निर्माण के लिए साधनभूत सब लताएँ हमारे लिए सुलभ हों।

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