अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - पञ्चपदा परानुष्टुबतिजगती
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
प्र॑स्तृण॒ती स्त॒म्बिनी॒रेक॑शुङ्गाः प्रतन्व॒तीरोष॑धी॒रा व॑दामि। अं॑शु॒मतीः॑ का॒ण्डिनी॒र्या विशा॑खा॒ ह्वया॑मि ते वी॒रुधो॑ वैश्वदे॒वीरु॒ग्राः पु॑रुष॒जीव॑नीः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽस्तृ॒ण॒ती: । स्त॒म्बिनी॑: । एक॑ऽशुङ्गा: । प्र॒ऽत॒न्व॒ती: । ओष॑धी: । आ । व॒दा॒मि॒ । अं॒शु॒ऽमती॑: । का॒ण्डिनी॑: । या: । विऽशा॑खा: । ह्वया॑मि । ते॒ । वी॒रुध॑: । वै॒श्व॒ऽदे॒वी: । उ॒ग्रा: । पु॒रु॒ष॒ऽजीव॑नी: ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रस्तृणती स्तम्बिनीरेकशुङ्गाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि। अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्वयामि ते वीरुधो वैश्वदेवीरुग्राः पुरुषजीवनीः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽस्तृणती: । स्तम्बिनी: । एकऽशुङ्गा: । प्रऽतन्वती: । ओषधी: । आ । वदामि । अंशुऽमती: । काण्डिनी: । या: । विऽशाखा: । ह्वयामि । ते । वीरुध: । वैश्वऽदेवी: । उग्रा: । पुरुषऽजीवनी: ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
विषय - उग्राः पुरुषजीवनी:
पदार्थ -
१. प्रभु कहते है कि हे पुरुष! मैं तेरे लिए उन (ओषधी:) = ओषधियों को (आवदामि) = उपदिष्ट करता हूँ जो (प्रस्तुणती:) = भूमि को (आच्छादित) = करनेवाली हैं-खूब फैलनेवाली हैं, (स्तम्बिनी:) = तृणों के गुच्छोंवाली हैं, (एकशङ्गा) = एक कोंपलवाली हैं [शङ्ग the awnof a corm] तथा (प्रतन्वती:) = खूब ही फैलनेवाली हैं। २. मैं (ते) = तेरे लिए उन (वीरुधः) = लताओं को (हयामि) = पुकारता हूँ या:-जोकि अंशुमती: बहुत तन्तुओंवाली हैं। काण्डिनी:-काण्डों या पोरुओंवाली हैं, विशाखा:-शाखाओं से रहित हैं। ये ओषधियाँ वैश्वदेवी:-सब दिव्य गुणोंवाली व सब रोगों को जीतनेवाली है, उना:-प्रबल प्रभाववाली हैं, पुरुषजीवनी:-पुरुष को जीवन प्रदान करनेवाली हैं-इनके प्रयोग से पुरुष पुनः जीवित हो उठता है।
भावार्थ -
प्रभु ने विविध ओषधियों को जन्म दिया है। उनका समुचित ज्ञान व प्रयोग करते हुए हम नीरोग व दीर्घजीवी बनें।
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