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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    समि॑द्धोऽअ॒ञ्जन् कृद॑रं मती॒नां घृ॒तम॑ग्ने॒ मधु॑म॒त् पिन्व॑मानः।वा॒जी वह॑न् वा॒जिनं॑ जातवेदो दे॒वानां॑ वक्षि प्रि॒यमा स॒धस्थ॑म्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। अ॒ञ्जन्। कृद॑रम्। म॒ती॒नाम्। घृ॒तम्। अ॒ग्ने॒। मधु॑म॒दिति॒ मधु॑ऽमत्। पिन्व॑मानः। वा॒जी। वह॑न्। वा॒जिन॑म्। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। दे॒वाना॑म्। व॒क्षि॒। प्रि॒यम्। आ। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धो अञ्जन्कृदरम्मतीनाङ्घृतमग्ने मधुमत्पिन्वमानः । वाजी वहन्वाजिनञ्जातवेदो देवानाँवक्षि प्रियमा सधस्थम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। अञ्जन्। कृदरम्। मतीनाम्। घृतम्। अग्ने। मधुमदिति मधुऽमत्। पिन्वमानः। वाजी। वहन्। वाजिनम्। जातवेद इति जातऽवेदः। देवानाम्। वक्षि। प्रियम्। आ। सधस्थमिति सधऽस्थम्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी विद्वान् पुरुष ! हे ( जातवेदः ) विद्याओं में निष्णात, ज्ञानप्रद बुद्धिमन् ! ( समिद्ध: ) खूब प्रदीप्त हुआ अग्नि (मधुमत् ) मधुर अन्न से युक्त (घृतम् ) घी को (पिन्वमानः) सेवन करके अर्थात् चरु और स्निग्ध पदार्थ पाकर (कुदरं अञ्जन् ) सकल पदार्थों के छिन्न-भिन्न करनेवाले गुण को प्रकट करता है तू भी ( मधुमत् घृतम् पिन्वमानः) मधुर अन्न से युक्त घृत आदि स्निग्ध, पुष्टिकारक पदार्थों का सेवन करता हुआ (मतीनाम् ) मनन योग्य बुद्धियों के ( कृदरम् ) समस्त पदार्थों के विवेक करनेवाले गुण को (अञ्जन् ) प्रकट करता हुआ (देवानां प्रियम् ) विद्वानों के प्रिय ( सधस्थम् ) एक साथ स्थिर होने योग्य, सर्वमान्य सिद्धान्त तक ( वाजिनम् ) वीर्यवान्, सामर्थ्यवान् पुरुष को ( वहन् ) उठा कर ( वाजी ) घोड़ा स्थानान्तर को ले जाता है वैसे तू भी लक्ष्य तक उसे ( आ वक्षि ) पहुँचाता है । जाठर अग्नि के दृष्टान्त से (मधुमत् घृतं पिन्वमानः ) अन्न युक्त घृत को सेवन करके जिस प्रकार जाठर अग्नि ( मतीनां कृदरम् ) मनुष्यों के उदर की शक्ति को (अञ्जन् ) प्रकट करता है उसी प्रकार हे पुरुष ! मधुर घृतः का सेवन करके ( मतीनाम् ) बुद्धियों के ( कृदरम् ) विवेकजनक रहस्य को प्रकट कर और (जातवेदः) हे बुद्धिमान् पुरुष ! ( वाजिनं वहन् वाजी ) बलवान् पुरुष को जिस प्रकार वेगवान् अश्व उठा कर ले जाता है उसी प्रकार तू स्वयं ( वाज़ी ) संग्राम सम्पन्न, युद्धविजयी होकर ( वाजिनम् ) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र को (वहन् ) धारण करता हुआ (देवानां प्रियम् सधस्थम्) देवों के प्रिय, एकत्र होने के स्थान सभा-भवन को ( आ वक्षि ) धारण कर, उसको सभापति बनकर चला । अर्थात् - जैसे जाठर अग्नि अन्नादि खाकर मनुष्यों की उदरशक्ति को प्रकट करता है और ( देवानाम् ) देव, इन्द्रियों के ( सधस्थं आवक्षि ) एकत्र रहने के स्थान शरीर को धारण करता है उसी प्रकार राजा या सभापति ( मधुमत् ) अन्न युक्त या मधुर फलों से युक्त ( घृतम् ) तेजस्वी सूर्यवत् तेजस्वी के पद को सेवन करता हुआ बुद्धियों के या मननशील मनुष्यों के बीच राजधानी या केन्द्र स्थान को प्रकट करता हुआ स्वयं (समिद्धः) अति तृप्त होकर (सधस्थम् ) एकत्र रहने के स्थान सभास्थल या राष्ट्र को धारण करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्जातवेदा । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥[ १ - ११ ] अभ्वः सामुद्रिः, बृहदुक्थो वामदेव्यो वा ऋषिः । अप्रियः ।

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