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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 48
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - वीरा देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सु॒प॒र्णं व॑स्ते मृ॒गोऽअ॑स्या॒ दन्तो॒ गोभिः॒ सन्न॑द्धा पतति॒ प्रसू॑ता। यत्रा॒ नरः॒ सं च॒ वि च॒ द्रव॑न्ति॒ तत्रा॒स्माभ्य॒मिष॑वः॒ शर्म॑ यꣳसन्॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒प॒र्णमिति॑ सुऽप॒र्णम्। व॒स्ते॒। मृ॒गः। अ॒स्याः॒। दन्तः॑। गोभिः॑। सन्न॒द्धेति सम्ऽन॑द्धा। प॒त॒ति॒। प्रसू॒तेति॒ प्रऽसू॑ता। यत्र॒। नरः॑। सम्। च॒। वि। च॒। द्रव॑न्ति। तत्र॑। अ॒स्मभ्य॑म्। इष॑वः। शर्म॑। य॒ꣳस॒न् ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णँ वस्ते मृगोऽअस्या दन्तो गोभिः सन्नद्धा पतति प्रसूता । यत्रा नरः सञ्च वि च द्रवन्ति तत्रास्मभ्यमिषवः शर्म यँसन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुपर्णमिति सुऽपर्णम्। वस्ते। मृगः। अस्याः। दन्तः। गोभिः। सन्नद्धेति सम्ऽनद्धा। पतति। प्रसूतेति प्रऽसूता। यत्र। नरः। सम्। च। वि। च। द्रवन्ति। तत्र। अस्मभ्यम्। इषवः। शर्म। यꣳसन्॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 48
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    भावार्थ -
    (मृग:) तीव्र मृग के समान गतिशील बाण ( सुपर्णम् ), शोभन पक्षों को (वस्ते) धारण करता है और (अस्याः दन्तः) इस बाण का मुख या फला केवल दन्त के समान काटने वाला होता है । अथवा — बाण (सुपर्ण वस्ते) पक्षी के पंखों को धारण करता और (यस्य दन्तः: मृगः ) इसका काटने का साधन मृग अर्थात् व्याघ्र के दांत के समान तीक्ष्ण होता है । वह स्वयं (गोभिः) गोचर्म की बनी तांतों से (सनद्धा) खूब बंधा जकड़ा हुआ और (प्रसूता ) धनुष द्वारा प्रेरित होकर (पतति ) बड़ी दूर जा पडता है (यत्र ) जहां (नरः) मनुष्य (संद्रवन्ति) परस्पर एक- दूसरे के साथ वेग से भागते हैं और (विद्रवन्ति च ) एक दूसरे के विपरीत होकर दौड़ते हैं । (तत्र) उस युद्ध काल में भी ( इषव:) बाण (अस्मभ्यम् ) हमें (शर्म) सुखप्रद आश्रय ( यंसन् ) प्रदान करते हैं । 'सुपर्ण', 'मृग', 'गो' इत्यादिशब्दाः कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति इति यास्कवचनात् तद्विकारवाचका भवन्ति ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वीराः त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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