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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 33
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - वाग्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    आ नो॑ य॒ज्ञं भार॑ती॒ तूय॑मे॒त्विडा॑ मनु॒ष्वदि॒ह चे॒तय॑न्ती।ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेद स्यो॒नꣳ सर॑स्वती॒ स्वप॑सः सदन्तु॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। य॒ज्ञम्। भार॑ती॒। तूय॑म्। ए॒तु॒। इडा॑। म॒नु॒ष्वत्। इ॒ह। चे॒तय॑न्ती। ति॒स्रः। दे॒वीः। ब॒र्हिः। आ। इ॒दम्। स्यो॒नम्। सर॑स्वती। स्वप॑स॒ इति॑ सु॒ऽअप॑सः। स॒द॒न्तु॒ ॥३३।


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो यज्ञम्भारती तूयमेत्विडा मनुष्वदिह चेतयन्ती । तिस्रो देवीर्बर्हिरेदँ स्योनँ सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। यज्ञम्। भारती। तूयम्। एतु। इडा। मनुष्वत्। इह। चेतयन्ती। तिस्रः। देवीः। बर्हिः। आ। इदम्। स्योनम्। सरस्वती। स्वपस इति सुऽअपसः। सदन्तु॥३३।

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 33
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    भावार्थ -
    (भारती) भारती, (इडा) इडा और (सरस्वती) सरस्वती ( तिस्रः देवीः ) तीनों दिव्यगुण वाली, ज्ञान प्रकाश से युक्त संस्थाएं (मनुष्वत्) मननशील पुरुष के समान (चेतयन्ती) ज्ञान का प्रकाश करने वाली और (स्वपसः) उत्तम ज्ञानों और कर्मों को सम्पन्न करने वाली होकर (इह) ` यहां ( नः यज्ञम् ) हमारे यज्ञ और राष्ट्र को ( तूयम् ) शीघ्र (एतु) प्राप्त हों । (इदं बर्हिः) इस लोक को (स्योने) सुखपूर्वक (आ सदन्तु) पद सुशोभित करें, शासन करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वाग् । मुरिक् पक्तिः । पंचमः ॥

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