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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 54
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - वीरो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ म॒रुता॒मनी॑कं मि॒त्रस्य॒ गर्भो॒ वरु॑णस्य॒ नाभिः॑।सेमां नो॑ ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णो देव॑ रथ॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। वज्रः॑। म॒रुता॑म्। अनी॑कम्। मि॒त्रस्य॑। गर्भः॑। वरु॑णस्य। नाभिः॑। सः। इ॒माम्। नः॒। ह॒व्यदा॑ति॒मिति॑ ह॒व्यऽदा॑तिम्। जु॒षा॒णः। देव॑। र॒थ॒। प्रति॑। ह॒व्या। गृ॒भा॒य॒ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य वज्रो मरुतामनीकम्मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिः । सेमान्नो हव्यदातिञ्जुषाणो देव रथ प्रति हव्या गृभाय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। वज्रः। मरुताम्। अनीकम्। मित्रस्य। गर्भः। वरुणास्य। नाभिः। सः। इमाम्। नः। हव्यदातिमिति हव्यऽदातिम्। जुषाणः। देव। रथ। प्रति। हव्या। गृभाय॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 54
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    भावार्थ -
    ( इन्द्रस्य वज्रः) सेनापति या राजा का जलवर्षक मेघ के विद्युत् के समान प्रखर (वज्रः) शत्रुनिवारक शस्त्रास्त्र, सेना आदि बल वीर्य और ( मरुताम् ) प्रचण्ड वायुओं के समान तीव्र वेगवान् एवं शत्रु- मारक सेनापतियों का ( अनीकम् ) सैन्य है और (मित्रस्य गर्भः) सूर्य के समान तेजस्वी, स्नेही मित्र का ग्रहण- सामर्थ्य और ( वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष, दुष्टनिवारक, बलवान् स्वयंवृत राजा का ( नाभिः) प्रबन्धबल या संघबल है । (सः) वह सब हे (देव) राजन् ! तू ही है । हे (रथ) रथ के समान वेग से जाने वाले अंग प्रत्यग में दृढ़ एवं रमणीय गुणों से युक्त ! बह तु (नः) हमारे ( हव्यदातिम् ) अन्नादि के दान को (जुषाणः ) स्वीकार करता हुआ (हव्या) समस्त ग्राह्य पदार्थों को (प्रति गृभाय ) ग्रहण कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वीरः । निवृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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