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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र॒थ॒मा वा॑ꣳसर॒थिना॑ सु॒वर्णा॑ दे॒वौ पश्य॑न्ताै॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।अपि॑प्रयं॒ चोद॑ना वां॒ मिमा॑ना॒ होता॑रा॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒थ॒मा। वा॒म्। स॒र॒थिनेति॑ सऽर॒थिना॑। सु॒वर्णेति॑ सु॒ऽवर्णा॑। दे॒वौ। पश्य॑न्तौ। भुव॑नानि। विश्वा॑। अपि॑ऽप्रयम्। चोद॑ना। वा॒म्। मिमा॑ना। होता॑रा। ज्योतिः॑। प्र॒दि॑शेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। दि॒शन्ता॑ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रथमा वाँ सरथिना सुवर्णा देवौ पश्यन्तौ भुवनानि विश्वा । अपिप्रयञ्चोदना वाम्मिमाना होतारा ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रथमा। वाम्। सरथिनेति सऽरथिना। सुवर्णेति सुऽवर्णा। देवौ। पश्यन्तौ। भुवनानि। विश्वा। अपिऽप्रयम्। चोदना। वाम्। मिमाना। होतारा। ज्योतिः। प्रदिशेति प्रऽदिशा। दिशन्ता॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 7
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    भावार्थ -
    हे उपदेशक और अध्यापक जनो ! ( वाम् ) तुम दोनों (प्रथमा) सबसे प्रथम, सबसे श्रेष्ठ, ( सरथिनौ ) समानरूप से रथों पर विराजमान, (सुवर्णा) उत्तम वर्ण वाले, (विश्वा भुवना पश्यन्तौ) समस्त लोकों को देखते हुए सूर्य चन्द्र के समान वर्त्तमान (देवौ ) दानशील, द्रष्टा, एवं प्रकाशक होकर रहो । ( वाम् ) तुम दोनों को (अपिप्रयम् ) मैं नित्य तृप्त कर प्रसन्न रखूं | आप दोनों (चोदना मिमाना) नाना वेदानुकूल कर्त्तव्य कर्मों को जानते हुए ( होतारा ) उपादेय पदार्थों का ग्रहण वा दान करते हुए ( प्रदिशा) उत्तम ज्ञान से (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश को (दिशन्तौ) उपदेश करते रहें । (२) दोनों स्त्री पुरुष, पति पत्नी, ( सरथिनौ ) एक रथ पर चढ़े हुए, (सुवर्णा) उत्तम वर्ण के, (देवौ) एक दूसरे को चाहने वाले, (विश्वा भुवनानि पश्यन्तौ) समस्त लोकों को देखते हुए, ( चोदना मिमानौ ) उत्तम कर्मों को करते हुए, (होतारा) सुखों को परस्पर लेते, देते हुए, (प्रदिशा) उत्कृष्ट मार्ग से ( ज्योतिः दिशन्तौ) ज्ञानज्योति प्रदान करते रहो । (वां अपिप्रयम् ) मैं पुत्र तुम दोनों को आनन्दित करूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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