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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 26
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    तनू॑नपात् प॒थऽऋ॒तस्य॒ याना॒न् मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व।मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन् दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं नः॑॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तनू॑नपा॒दिति॒ तनू॑ऽनपात्। प॒थः। ऋ॒तस्य॑। याना॑न्। मध्वा॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स्व॒द॒य॒। सु॒जि॒ह्वेति॑ सुऽजिह्व। मन्मा॑नि। धी॒भिः। उ॒त। य॒ज्ञम्। ऋ॒न्धन्। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। च॒। कृ॒णु॒हि॒। अ॒ध्व॒रम्। नः॒ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तनूनपात्पथऽऋतस्य यानान्मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व । मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन्देवत्रा च कृणुह्यध्वरन्नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तनूनपादिति तनूऽनपात्। पथः। ऋतस्य। यानान्। मध्वा। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। स्वदय। सुजिह्वेति सुऽजिह्व। मन्मानि। धीभिः। उत। यज्ञम्। ऋन्धन्। देवत्रेति देवऽत्रा। च। कृणुहि। अध्वरम्। नः॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 26
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    भावार्थ -
    ( तनूनपात् ) विस्तृत राष्ट्र को पतन न होने देने वाले, रक्षक ! हे (सुजिह्न) उत्तम वाणी वाले ! तू (ऋतस्य) सत्य के ( यानान् ) पथः) आचरण करने योग्य, चलने योग्य मार्गों को (मध्वा) मधुर उपदेश रस से (सम् अञ्जन् ) अच्छी प्रकार प्रकाशित करता हुआ (स्वदय ) सबके लिये रुचिकर बना । अर्थात् धर्म के कार्यों को उत्तम आकर्षक भाषा में लोगों के सामने रखकर उन पर उनको चलने की प्रेरणा कर और (धीभिः) अपनी बुद्धियों से ( मन्मानि ) मनन करने योग्य ज्ञातव्य विषयों को (उत) और (यज्ञम् ) परस्पर संगत राष्ट्र को, समाज को अथवा उपास्य देव को ( ऋन्धन् ) अति समृद्ध, सुशोभित, करता हुआ, (नः) हमारे (अध्वरम् ) हिंसा से रहित या अविनाशी यज्ञ, राष्ट्रपालन के कार्य को (देवत्रा च)देवों,विद्वानों,कार्यकुशल,व्यवहारश्रेष्ठ पुरुषों के आधार पर (कृणुहि )सम्पादन कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विद्वान् । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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