यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 13
ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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य॒मेन॑ द॒त्तं त्रि॒तऽए॑नमायुन॒गिन्द्र॑ऽएणं प्रथ॒मोऽअध्य॑तिष्ठत्।ग॒न्ध॒र्वोऽअ॑स्य रश॒नाम॑गृभ्णा॒त् सूरा॒दश्वं॑ वस॒वो निर॑तष्ट॥१३॥
स्वर सहित पद पाठय॒मेन॑। द॒त्तम्। त्रि॒तः। ए॒न॒म्। आ॒यु॒न॒क्। अ॒यु॒न॒गत्य॑युनक्। इन्द्रः॑। ए॒न॒म्। प्र॒थ॒मः। अधि॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। ग॒न्ध॒र्वः। अ॒स्य॒। र॒श॒नाम्। अ॒गृ॒भ्णा॒त्। सूरा॑त्। अश्व॑म्। व॒स॒वः। निः। अ॒त॒ष्ट॒ ॥१३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमेन दत्तन्त्रितऽएनमायुनगिन्द्रऽएणम्प्रथमोऽअध्यतिष्ठत् । गन्धर्वाऽअस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वँवसवो निरतष्ट ॥
स्वर रहित पद पाठ
यमेन। दत्तम्। त्रितः। एनम्। आयुनक्। अयुनगत्ययुनक्। इन्द्रः। एनम्। प्रथमः। अधि। अतिष्ठत्। गन्धर्वः। अस्य। रशनाम्। अगृभ्णात्। सूरात्। अश्वम्। वसवः। निः। अतष्ट॥१३॥
विषय - राष्ट्र के अनुयोक्ता त्रिवेदज्ञ पुरुष का होना, उसका आज्ञा- अक होना । पक्षान्तर में अध्यात्म देहव्यवस्था का वर्णन ।
भावार्थ -
(त्रितः) तीनों वेदों का विद्वान्, त्रिविध शक्तियों से सम्पन्न पुरुष, ( यमेन ) नियम करने वाले पद द्वारा ( दत्तम् ) प्रदत्त, स्वीकृत (एनम् ) इस राष्ट्र को (आयुनग् ) नियुक्त करता है । (इन्द्रः) शत्रुनाशक, ऐश्वर्यवान् पुरुष ( एतम् ) इस राष्ट्र पर ( प्रथमः ) सबसे प्रथम ( अधि अतिष्ठत् ) अधिष्ठाता रूप से विराजता है । ( गन्धर्वः ) गौ, पृथिवी या आज्ञारूप वाणी के धारण करने में समर्थ पुरुष (अस्य) इस राष्ट्र रूप अश्व की ( रशनाम् ) रस्सी, बागडोर को (अगृभ्णात् ) धारण करता है । ( वसवः ) हे वसुगणो ! प्रजाजनो ! विद्वानो ! ( सूरात् ) सबके प्रेरक सूर्य के तेज से ( अश्वम् ) इस व्यापक राज्य को (निर् अतष्ट) निर्माण करो । अध्यात्म में - ( यमेन दत्तम् ) प्राण वायु से धारित शरीर को (त्रितः) तीन धातुओं से युक्त अन्न या आत्मा (आयुनक ) युक्त करता है । (इन्द्रः) जीव इसका अधिष्ठाता है । गन्धर्व मन इसकी 'रशना' बागडोर को सम्भालता है । ( वसवः) बसनेवाले चक्षु आदि इन्द्रिय ( सूरात् प्रेरक ) प्राण से ही इसको निर्माण करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । भुरिक् त्रिष्टुप् धैवतः ॥
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