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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
    सूक्त - विवाह मन्त्र आशीष, वधुवास संस्पर्शमोचन देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    परा॑ देहिशामु॒ल्यं ब्र॒ह्मभ्यो॒ वि भ॑जा॒ वसु॑। कृ॒त्यैषा॑ प॒द्वती॑ भू॒त्वा जा॒यावि॑शते॒ पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । दे॒हि॒ । शा॒मु॒ल्य᳡म् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । वि। भ॒ज॒ । वसु॑ । कृ॒त्या । ए॒षा । प॒त्ऽवती॑ । भू॒त्वा । आ । जा॒या । वि॒श॒ते॒ । पति॑म् ॥१.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा देहिशामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु। कृत्यैषा पद्वती भूत्वा जायाविशते पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । देहि । शामुल्यम् । ब्रह्मऽभ्य: । वि। भज । वसु । कृत्या । एषा । पत्ऽवती । भूत्वा । आ । जाया । विशते । पतिम् ॥१.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 25

    भावार्थ -
    हे नवविवाहित पुरुष ! तू (शामुल्यम्) शमन करने योग्य मानस दुर्भाव या मलिनता को (परा देहि) दूर करदे। और (ब्रह्मभ्यः) विद्वान् ब्राह्मणों को (वसु) धन का (वि भज) विविध रूपों में दान कर। (एषा जाया) यह जाया, स्त्री साक्षात् (पद्वती) चरणों वाली (कृत्या) सेना के समान हिंसाकारिणी (भूत्वा) होकर (पतिम्) पति के गृह में (विशते) प्रवेश करती है। विद्वानों को गृह पर बुलाकर उनके ज्ञानोपदेशों द्वारा चित्त के मलिन भावों को दूर करे। नहीं तो गृहों में नववधू ही कलह का कारण हो जाती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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