Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    सूक्त - सोम देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    यत्त्वा॑ सोमप्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुनः॑। वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒आकृ॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । सो॒म॒ । प्र॒ऽपिब॑न्ति । तत॑: । आ । प्या॒य॒से॒ । पुन॑: । वा॒यु: । सोम॑स्य । र॒क्षि॒ता । समा॑नाम् । मास॑: । आऽकृ॑ति: ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वा सोमप्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः। वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मासआकृतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । त्वा । सोम । प्रऽपिबन्ति । तत: । आ । प्यायसे । पुन: । वायु: । सोमस्य । रक्षिता । समानाम् । मास: । आऽकृति: ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (यत्) जब (त्वा) तुझे हे (सोम) सोम ! (प्रपिबन्ति) लोग भरपूर होकर पी लेते या भोग लेते हैं (ततः) तिस पर भी तू (पुनः) फिर (आप्यायसे) बढ़कर समृद्ध हो जाता है। (वायुः) वायु, प्राण वायु (सोमस्य) सोम = वीर्य का (रक्षिता) रक्षक है। जैसे (समानां) वर्षो का (मासः) मास ही (आकृतिः) बनाने वाला होता है। अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा क्षीण हो होकर पुनः बढ़कर पूरा हो जाता है उसी प्रकार क्रम से पूरा वर्ष भी व्यतीत हो जाता है। इसी प्रकार शरीर में वीर्य का व्यय होकर भी पुनः संचय हो जाता है। और इसी प्रकार मासों से पुनः पुनः वर्ष व्यतीत होते जाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top