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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒क्षू क॒नाया॑: स॒ख्यं नवी॑यो॒ राधो॒ न रेत॑ ऋ॒तमित्तु॑रण्यन् । शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑या॒: पय॑ उ॒स्रिया॑याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒क्षु । क॒नायाः॑ । स॒ख्यम् । नवी॑यः । राधः॑ । न । रेतः॑ । ऋ॒तम् । इत् । तु॒र॒ण्य॒न् । शुचि॑ । यत् । ते॒ । रेक्णः॑ । आ । अय॑जन्त । स॒बः॒ऽदुघा॑याः । पयः॑ । उ॒स्रिया॑याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मक्षू कनाया: सख्यं नवीयो राधो न रेत ऋतमित्तुरण्यन् । शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघाया: पय उस्रियायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मक्षु । कनायाः । सख्यम् । नवीयः । राधः । न । रेतः । ऋतम् । इत् । तुरण्यन् । शुचि । यत् । ते । रेक्णः । आ । अयजन्त । सबःऽदुघायाः । पयः । उस्रियायाः ॥ १०.६१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कनायाः सख्यं नवीयः-राधः-मक्षु) कन्या का सखापन अत्यन्त स्तुत्य धन तुरन्त प्राप्त करने योग्य है (रेतः-न-ऋतम्-इत्-तुरण्यन्) जैसे अपना वीर्य अमृत है, जिसे प्राण प्रेरित करते हैं (यत्-ते शुचि रेक्णः-आयजन्त) जिसे तेरे लिए शुभ्र पुत्ररूप धन को देते हैं (सबर्दुघायाः-उस्रियायाः पयः) सब कामों-इच्छाओं को दोहनेवाली गौ के दुग्ध की भाँति है अथवा स्वर्ग को दोहनेवाली या स्वानन्द को दोहनेवाली पत्नी का दुग्ध रूप है-दुग्ध की भाँति है ॥११॥

    भावार्थ

    विवाहसंस्कार में कुमारी का पत्नी-सम्बन्ध प्रशंसनीय धनरूप है। अपने प्राणों का तत्त्व-वीर्य पत्नी में जाकर के सन्तानरत्न को उत्पन्न करता है तथा पत्नी सब कामनाओं को दुहनेवाली है। गार्हस्थ्य अमृत को दुहनेवाली अर्थात् स्वानन्द को दुहनेवाली है ॥११॥

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    विषय

    ब्रह्मचारी के तुल्य विवाहित के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (मक्षु कनायाः) जो शीघ्र ही दीप्तियुक्त मधुर वाणी के (नवीयः सख्यम्) नये ही मैत्रीभाव को और (राधः न) द्रव्य के समान (रेतः) वीर्य को और (ऋतम्) सत्य ज्ञान को (इत्) भी (तुरण्यन्) प्राप्त कर लेते हैं वे मनुष्य हे आचार्य ! इन्द्र ! (ते शुचि रेक्णः) तेरे शुद्ध, पवित्र प्रदत्त ज्ञानरूप धन को ऐसे (सबर्दुघायाः उस्त्रिया याः पयः) अमृतवत् दूध देने वाली गौ के दूध के समान ही (आ अयजन्त) ग्रहण करते हैं। (२) इसी प्रकार कन्या के नवीन सख्य, धनवत् ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य और गुरु-शुश्रूषा से सत्य ज्ञान, को जो प्राप्त करते हैं वे ही गाय के दूध के समान (शुचि रेक्णः) शुद्ध सन्तति का भी लाभ करते हैं।

    टिप्पणी

    यजतिर्दानार्थः। आङ्पूर्वकश्चादानार्थः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    राधः-रेतः-ऋतम्

    पदार्थ

    [१] राष्ट्रपति (कनायाः) = ज्ञानदीप्त सभ्यों के कारण चमकनेवाली सभा की (नवीयः) = स्तुत्यतम (सख्यम्) = मित्रता को (मक्षू तुरण्यन्) = शीघ्रता से उत्पन्न करता है, अर्थात् प्रयत्न करता है कि उसका सभा से किसी प्रकार का विरोध न हो। इस सभा के साथ अविरोध के द्वारा वह राष्ट्रपति (राधः न) = सम्पत्ति व सफलता की तरह रेतः-शक्ति को और (इत्) = निश्चय से ऋतम् न्याय्य व्यवस्था [=ठीक शासन] को (तुरण्यन्) = शीघ्रता से उत्पन्न करता है। जब राष्ट्र में राष्ट्रपति व सभा में मैत्री का भाव, अर्थात् अविरोध चलता है तो राष्ट्र की सम्पत्ति, शक्ति व न्याय्य व्यवस्था में वृद्धि ही वृद्धि होती है । [२] (ते) = वे सभा के सभ्य (यत्) = जब (शुचि रेक्ण) = पवित्र धन को ही (आयजन्त) = अपने साथ संगत करनेवाले होते हैं तो वह पवित्र धन (सबर्दुघायाः) = अमृत का दोहन करनेवाली (उस्त्रियायाः) = गौ के (पयः) = दूध के समान होता है। इन बड़े व्यक्तियों में यदि किसी भी प्रकार के अन्याय्य धन को कमाने की रुचि न हो राष्ट्र के कार्यकर्ताओं में रिश्वत आदि लेने की भावना का उच्छेद हो जाता है और राष्ट्रकोश उस धन से परिपूर्ण होता है, जो धन कि राष्ट्र के लिये अमृत के तुल्य प्रमाणित होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - राष्ट्रपति व सभा का अविरोध राष्ट्र की सम्पत्ति शक्ति व न्याय्य व्यवस्था के वर्धन का कारण बनता है। यदि सभ्य पवित्र धन का ही अर्जन करते हैं तो वह राष्ट्र के लिये अमृत तुल्य होता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कनायाः-सख्यं नवीयः-राधः-मक्षु) कन्यायाः सखित्वं स्तुत्यतरं धनं सद्यः प्रापणीयं (रेतः-न-ऋतम्-इत्-तुरण्यन्) यथा स्वकीयं वीर्यं तदमृतम् “ऋतममृतमित्याह” [जै० २।१६०] प्राणाः प्रेरयन्ति (यत्-ते-शुचि रेक्णः-आयजन्त) यत् खलु तुभ्यं शुभ्रं पुत्ररूपधनं समन्ताद् ददति “रेक्णः परिषद्यं ह्यरणस्य रेक्णः....। रेक्ण-इति धननाम रिच्यते प्रयतः” [निरु० ३।१] सवर्दुघायाः-उस्रियायाः पयः) सर्वकामदोग्ध्र्याः “सर्वदुघा सर्वान् कामान् पूरयन्ती” [ऋ० १।१३४।४ दयानन्दः] गोर्दुग्धमिवास्ति यद्वा स्वर्दोग्ध्र्याः स्वानन्ददोग्ध्र्याः पत्न्याः दुग्धरूपमस्ति ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soon the solar radiations in unison with the homogeneity of fertile earth stimulate the vital process of nature’s creativity and produce the liquid living energy, pure life seed, latest prize like the legacy of divinity for you, O yajamana, the gift of generous earth and the mother’s milk. (Similarly the young men who win the love and friendship of the lovely maidens of their choice and earnestly observe the laws and discipline of nature and maintain the purity of their seed of life receive the generous mother’s gift of noble progeny.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विवाह संस्कारात कुमारीचा पत्नी-संबंध प्रशंसनीय धनरूप आहे. आपल्या प्राणांचे तत्त्व-वीर्य पत्नीमध्ये सिंचन करून संतानरत्न उत्पन्न करतो व पत्नीही सर्व कामनांचे दोहन करणारी असते. गार्हस्थ अमृताचे दोहन करणारी अर्थात् स्वानंदाचे दोहन करणारी असते. ॥११॥

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