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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 20
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अधा॑सु म॒न्द्रो अ॑र॒तिर्वि॒भावाव॑ स्यति द्विवर्त॒निर्व॑ने॒षाट् । ऊ॒र्ध्वा यच्छ्रेणि॒र्न शिशु॒र्दन्म॒क्षू स्थि॒रं शे॑वृ॒धं सू॑त मा॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । आ॒सु॒ । म॒न्द्रः । अ॒र॒तिः । वि॒भाऽवा॑ । अव॑ । स्य॒ति॒ । द्वि॒ऽव॒र्त॒निः । व॒ने॒षाट् । ऊ॒र्ध्वा । यत् । श्रेणिः॑ । न । शिशुः॑ । दन् । म॒क्षु । स्थि॒रम् । शे॒ऽवृ॒धम् । सू॒त॒ । मा॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधासु मन्द्रो अरतिर्विभावाव स्यति द्विवर्तनिर्वनेषाट् । ऊर्ध्वा यच्छ्रेणिर्न शिशुर्दन्मक्षू स्थिरं शेवृधं सूत माता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । आसु । मन्द्रः । अरतिः । विभाऽवा । अव । स्यति । द्विऽवर्तनिः । वनेषाट् । ऊर्ध्वा । यत् । श्रेणिः । न । शिशुः । दन् । मक्षु । स्थिरम् । शेऽवृधम् । सूत । माता ॥ १०.६१.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 20
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (अध) अनन्तर (आसु-मन्द्रः-अरतिः-विभावा) इन विकृतियों-शरीरों में सोया हुआ, गतिमान् विशेषरूप से अपने आत्मा को दर्शाता है, वह चेतन (वनेषाट्-द्विवर्तनिः-अवस्यति) वननीय शरीर में होता हुआ सहता है, दो मार्गोंवाला अर्थात् इस लोक और परलोक में जानेवाला अथवा संसार और मोक्ष के प्रति गमनशील हुआ वर्तमान शरीर को छोड़ता है या संसार को छोड़ता है (यत्-ऊर्ध्वा श्रेणिः) जो ऊँची श्रेणि अर्थात् मुक्ति है, वह (शिशुः-न) प्रशंसनीय होती है (दन्) सुख देनेवाली है (मक्षु स्थिरं शेवृधं माता सूते) वह शीघ्र ही स्थिर सुख को उत्पन्न करती है, मुक्तिमाता रूप होती हुई ॥२०॥

    भावार्थ

    प्रकृति के विकृतिरूप सब प्राणी शरीर हैं, उनमें रहनेवाला चेतन आत्मा है, जो दो मार्गों पर गति करता है-इस जन्म और अगले जन्म संसार और मोक्ष में। अतः वह नित्य है। इसकी ऊँची स्थिति मुक्ति है, जहाँ इसे स्थायी सुख मिलता है, वह सुख की दात्री है-सुख को उत्पन्न करती है, उसका सुख अत्यन्त प्रशंसनीय है ॥२०॥

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अध) अनन्तरम् (आसु मन्द्रः-अरतिः-विभावा) आसु विकृतिषु तनूषु सुप्तः “मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु” [भ्वादिः] गतिमान् विशिष्टतया स्वात्मानं भाति द्योतयति चेतनः (वनेषाट्-द्विवर्तनिः अवस्यति) वननीये शरीरे सन् सहते तदभिभवति “षह अभिभवे” [भ्वादिः] द्विमार्गः-इहलोकं परलोकं च गमनशीलः, यद्वा संसारं मोक्षं प्रति च गमनशीलो वर्तमानं देहं त्यजति यद्वा संसारं त्यजति (यत्-ऊर्ध्वा श्रेणिः) यत्-ऊर्ध्वं श्रेणिर्मुक्तिः (शिशुः-न) शिशु शंसनीयो भवति तद्वत् प्रशंसनीया (दन्) सुखदात्री (मक्षु स्थिरं शेवृधं माता सूते) सद्यः स्थिरं सुखम् “शेवृधं सुखनाम” [निघ० ३।६] सा मुक्तिर्माता सती उत्पादयति ॥२०॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And in the directions of space pervades Agni, joyous, dynamic, bright, moving across heaven and earth, lord of woods, high power admirable, lovely, which, like an army array, destroys in no time. That stable power, giver of comfort and joy, too, Mother Nature generates.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रकृतीचे विकृतिरूप प्राणी शरीर आहे. त्यात राहणारा चेतन आत्मा आहे. जो दोन मार्गांवर गती करतो. या जन्मी संसार व पुढील जन्मी संसार व मोक्ष. तो नित्य आहे. त्याची उच्च अवस्था मुक्ती आहे. जेथे त्याला शाश्वत सुख मिळते. मुक्ती ही सुखाची दात्री आहे - सुख उत्पन्न करते. ते सुख अत्यंत प्रशंसनीय आहे. ॥२०॥

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