ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मनो॒ न येषु॒ हव॑नेषु ति॒ग्मं विप॒: शच्या॑ वनु॒थो द्रव॑न्ता । आ यः शर्या॑भिस्तुविनृ॒म्णो अ॒स्याश्री॑णीता॒दिशं॒ गभ॑स्तौ ॥
स्वर सहित पद पाठमनः॑ । न । येषु॑ । हव॑नेषु । ति॒ग्मम् । विपः॑ । शच्या॑ । व॒नु॒थः । द्रव॑न्ता । आ । यः । शर्या॑भिः । तु॒वि॒ऽनृ॒म्णः । अ॒स्य॒ । अश्री॑णीत । आ॒ऽदिश॑म् । गभ॑स्तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मनो न येषु हवनेषु तिग्मं विप: शच्या वनुथो द्रवन्ता । आ यः शर्याभिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशं गभस्तौ ॥
स्वर रहित पद पाठमनः । न । येषु । हवनेषु । तिग्मम् । विपः । शच्या । वनुथः । द्रवन्ता । आ । यः । शर्याभिः । तुविऽनृम्णः । अस्य । अश्रीणीत । आऽदिशम् । गभस्तौ ॥ १०.६१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(येषु हवनेषु) जिन आमन्त्रणों में या विद्याग्रहणप्रसङ्गों में (मनः-न तिग्मम्) मन के समान तीव्र गतिवाले (विपः) मेधावी शिक्षित स्नातक को (द्रवन्तां शच्या वनुथः) प्राप्त करते हुए माता-पिता या स्त्री-पुरुष वर्ग वाणी द्वारा सत्कार करते हैं-स्नेह करते हैं (यः) जो स्नातक (तुविनृम्णः) बहुत विद्याधनवाला है (अस्य शर्याभिः) इसकी स्नेहमयी अङ्गुलियों के द्वारा (आदिशं गभस्तौ-आश्रीणीत) आदेशवचन को हाथ में ग्रहण करते हुए जैसे सब जन भलीभाँति पोषण करें-अनुमोदन करें ॥३॥
भावार्थ
स्नातक जब माता-पिता या स्त्री-पुरुषों में विद्याप्राप्ति के अनन्तर उपस्थित हो, तो उसका स्नेह से स्वागत करें और उसके विद्यावचनों को हाथ में जैसे ग्रहण करने के समान ग्रहण करें और उसे अपना अनुमोदन प्रदान करें ॥३॥
विषय
शक्तिशाली की आज्ञा-पालन का उपदेश।
भावार्थ
हे स्त्री पुरुषो ! (यः) जो (तुवि-नृम्णः) बहुत से धनों का स्वामी होकर (गभस्तौ) अपने हाथ में (शर्याभिः) शर, बाण आदि हिंसाकारी साधनों से (अस्य) इस राष्ट्र के (आदिशम्) आदेश वा शासन करने के लिये (अश्रीणीत) उद्योग करे उस (विपः) विशेष पालक स्वामी की (शच्या) शक्ति और वाणी से प्रेरित होकर (येषु हवनेषु) जिन ग्रहणीय पदार्थों में (मनः न तिग्मम्) मन के समान तीक्ष्ण होकर (द्रवन्ता) जाते हो उनमें भी उसके (आदिशम् वनुथः) आदेश का सेवन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
मनोनिरोध व जीवन का परिपाक
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! [यह शब्द ६१ । ४ से लिया गया है] (न द्रवन्ता) = स्थिर होते हुए आप (येषु हवनेषु) = जिन प्रभु की पुकारों में, प्रभु नाम-स्मरणों में (विपः) = ज्ञानी मेधावी पुरुष के (तिग्मं मनः) = इस तीव्र गतिवाले मन को (शच्या) = प्रज्ञानपूर्वक कर्मों से (वनुथः) = जीत लेते हो [वन्=win]। यहाँ मनोनिरोध के लिये [क] सर्वमुख्य साधन प्राणसाधना को कहा गया है। ये प्राण- स्थिर होते हैं [न द्रवन्ता] तो मन भी स्थिर हो जाता है। [ख] मनोनिरोध के लिये प्रभु का आराधन आवश्यक है [हवनेषु], [ग] कर्मों में लगे रहना भी इसमें सहायक है [शच्या] । इन सभी साधनों को अपनाने पर ही यह तीव्र गतिवाला मन वश में होता है। [२] प्राणसाधना आदि के द्वारा मनोनिरोध करनेवाला मेधावी पुरुष वह है (यः) = जो (शर्याभिः) = [शृ हिंसायाम्] वासनाओं के हिंसन के द्वारा (तुविनृम्णः) = [नृम्ण = strength ] महान् शक्तिवाला होता है और यह मेधावी (अस्य) = इस प्रभु की (गभस्तौ) = ज्ञानरश्मियों में (आदिशम्) = उसके आदेश के अनुसार (आ अश्रीणीत) = सर्वथा अपना परिपाक करता है। शरीर, मन व बुद्धि सभी को बड़ा सुन्दर बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना, प्रभु के आराधन व कर्म में लगे रहने से हम मन को स्थिर करें और प्रभु के आदेश के अनुसार चलते हुए ठीक से अपना परिपाक करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(येषु हवनेषु) येषु खल्वामन्त्रणेषु “हवनश्रुतः-ह्वानश्रुतः” [निरु० ६।२०] विद्याग्रहणेषु वा (मनः-न तिग्मम्) मन इव तीव्रगतिकम् “तिग्म तीव्रम्” [ऋ० १।१३०।४ दयानन्दः] (विपः) विपम् “सुपां सु...” [अष्टा० ७।१।३९] ‘इति सुप्रत्ययः’ मेधाविनामधीतविद्यं स्नातकं (द्रवन्तां शच्या वनुथः) प्राप्नुवन्तौ मातापितरौ स्त्रीपुरुषौ वाचा वाक्सत्कारेण “शची वाङ्नाम” [निघ० १।११] सम्भजतः स्निह्यतः ‘पुरुषव्यत्ययः’ (यः) यस्स्नातकः (तुविनृम्णः) बहुविद्याधनोऽस्ति (अस्य शर्याभिः) स्नेहमयीभिरङ्गुलिभिः “शर्या अङ्गुलिनाम” [निघ० २।५] (आदिशं गभस्तौ-आश्रीणीत) आदेशनं वचनं पाणौ हस्ते गृहीत्वेव “पाणी वै गभस्ती” श० ४।१।१।२] सर्वो जनः समन्तात् पोषयेत् ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O men and women of the land, O Ashvins, O sun and moon, with voice and action, honour the call of this vibrant scholar and master of ample wealth and power who, with all the means and methods on hand, exhorts you to join the yajnic programmes of development to which you rush at the speed of the fastest and sharpest mind.
मराठी (1)
भावार्थ
स्नातक जेव्हा माता-पिता किंवा स्त्री-पुरुषांमध्ये विद्याप्राप्तीनंतर उपस्थित झाल्यास त्याचे स्नेहाने स्वागत करावे व त्याच्या विद्यावचनाला हाताने ग्रहण केल्याप्रमाणे अनुमोदन द्यावे. ॥३॥
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