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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 14
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    भर्गो॑ ह॒ नामो॒त यस्य॑ दे॒वाः स्व१॒॑र्ण ये त्रि॑षध॒स्थे नि॑षे॒दुः । अ॒ग्निर्ह॒ नामो॒त जा॒तवे॑दाः श्रु॒धी नो॑ होतॠ॒तस्य॒ होता॒ध्रुक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भर्गः॑ । ह॒ । नाम । उ॒त । यस्य॑ । दे॒वाः । स्वः॑ । न । ये । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थे । नि॒ऽसे॒दुः । अ॒ग्निः । ह॒ । नाम॑ । उ॒त । जा॒तऽवे॑दाः । श्रु॒धि । नः॒ । हो॒तः॒ । ऋ॒तस्य॑ । होता॑ । अ॒ध्रुक् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भर्गो ह नामोत यस्य देवाः स्व१र्ण ये त्रिषधस्थे निषेदुः । अग्निर्ह नामोत जातवेदाः श्रुधी नो होतॠतस्य होताध्रुक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भर्गः । ह । नाम । उत । यस्य । देवाः । स्वः । न । ये । त्रिऽसधस्थे । निऽसेदुः । अग्निः । ह । नाम । उत । जातऽवेदाः । श्रुधि । नः । होतः । ऋतस्य । होता । अध्रुक् ॥ १०.६१.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भर्गः-ह नाम) दुःखमूल पापों का भर्जन-भस्मी जिसके द्वारा हो, ऐसे ‘ओ३म्’ नाम (उत) और (यस्य देवाः) जिसके आश्रय में अथवा जिसको आश्रित करके मुमुक्षुजन (त्रिषधस्थे स्वः-न निषेदुः) अकार-अ, उकार-उ, मकार-म्, इन तीनों के सहयोग से बना हुआ, ओ३म्’ अथवा कर्म, उपासना, ज्ञान में स्थान जिसका है, ऐसे आनन्द को अनुभव करते हुए से स्थिर होते हैं (अग्निः-ह नाम) वह ज्ञानप्रकाशक प्रसिद्ध (उत) तथा (जातवेदाः) जो उत्पन्न हुओं को जानता है, ऐसा सर्वज्ञ (ऋतस्य होता) अध्यात्मयज्ञ का ग्रहीता (अध्रुक्) द्रोह न करनेवाला-स्नेहकर्ता, वह हे आह्वानयोग्य देव ! (नः श्रुधी) हमें स्वीकार कर ॥१४॥

    भावार्थ

    परमात्मा का मुख्य या स्वाभाविक नाम ‘ओ३म्’ है। इसको जानने मानने और उपासना करने से दुःखों के मूल अर्थात् पाप भस्म हो जाते हैं तथा ज्ञान कर्म उपासना द्वारा मुमुक्षु रोग दुःखों से मुक्त हो जाते हैं। वह परमात्मा उपासकों के द्वारा किये हुए स्तुति प्रार्थना उपासना का स्वीकारकर्ता है ॥१४॥

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    विषय

    सर्वोपास्य पापनाशक देव भर्ग।

    भावार्थ

    (ये) जो (देवाः) प्रकाशमान लोक (त्रि-सधस्थे) तीनों लोकों में विद्यमान हैं वे (यस्य निषेदुः) जिसके आश्रय पर रहते और जिसकी उपासना करते हैं वह (स्वः न) सूर्य के समान तेजोमय और सर्व-सुखस्वरूप (भर्गः ह नाम) सब पापों को भूनने वाला, और सब कर्मों का परिपाक करने वाला ‘भर्ग’ ऐसे नाम वा स्वरूप वाला है। वह (अग्निः ह नाम) निश्चय करके अग्निस्वरूप, ज्ञानवान्, प्रत्येक देह में विद्यमान है और (जातवेदाः) उत्पन्न प्रत्येक पदार्थ को जानने वाला, उसमें विद्यमान, सब धनों और ज्ञानों का आश्रय है। हे (होतुः) ज्ञान के ग्रहण करने और कराने वाले विद्वन् ! तू (अध्रुक्) द्रोह बुद्धि न करके ही (नः ऋतस्य श्रुधि) हमारे सत्य ज्ञान का श्रवण कर और हमें करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'भर्ग-अग्नि-जातवेदाः'

    पदार्थ

    [१] वह राष्ट्रपति (ह) = निश्चय से (भर्गः नाम) = भर्ग नामवाला है, राष्ट्र के दोषों को भून डालनेवाला है [भ्रस्ज्= पाके] । (उत) = और (यस्य) = जिसके (देवा:) = राष्ट्र-व्यवहार को सिद्ध करनेवाले (ये) = जो सभ्य हैं वे (स्वः न) = जिस प्रकार देव स्वर्गलोक में या प्रकाशमय लोक में आसीन होते हैं उसी प्रकार (त्रिषधस्थे) = वर्ष में तीन बार मिलकर बैठने के स्थान 'सभास्थल' में (निषेदुः) = निषण्ण होते हैं । अर्थात् वर्ष में तीन बार सभा का अधिवेशन होता है, उसमें एकत्रित होकर सभ्य राष्ट्र की स्थिति पर विचार करते हुए राष्ट्रोन्नति के लिये विचार करते हैं । [२] यह राष्ट्रपति (ह) = निश्चय से (अग्निः नाम) = अग्नि नामवाला होता है, यह राष्ट्र को आगे ले चलता है (उत) = और यह राष्ट्रपति (जातवेदाः) = [जातं जातं वेत्ति] राष्ट्र में होनेवाली प्रत्येक घटना से परिचित रहता है। इस परिचय के अभाव में आवश्यक कार्यों के होने का सम्भव ही नहीं होता । राष्ट्रोन्नति के लिये राष्ट्र को पूरी तरह से जानना आवश्यक है। [३] राष्ट्रपति राष्ट्रयज्ञ का होता है। इस होता से सभ्य कहते हैं कि आप (होता) = इस राष्ट्रयज्ञ के होता हो, (अध्रूक्) = द्रोह की भावना से रहित हो, आप किसी भी हिंसा की कामना को नहीं करते हो। हे (होत:) = राष्ट्र यज्ञ के करनेवाले राष्ट्रपते ! (नः) = हमारे ऋतस्य ऋत का, विचारपूर्वक बनाये हुए नियम का [ = कानून का] (श्रुधि) = आप श्रवण कीजिये । राष्ट्रपति को यही चाहिए कि वह प्रजाओं का शासन सभा से बनाये गये कानून के अनुसार ही करे। आधुनिक युग में इसी बात को इस रूप में कहते हैं कि राष्ट्रपति तो 'defender of the constitution' है, विधान का रक्षक है। विधान के अनुसार उसका शासनक्रम चलता है 1

    भावार्थ

    भावार्थ - राष्ट्रपति राष्ट्र के दोषों को भून डालने के कारण 'भर्ग' है, राष्ट्रोन्नति के कारण 'अग्नि' है, राष्ट्र की प्रत्येक घटना से परिचित रहने के कारण 'जातवेदाः ' है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भर्गः-ह नाम) “भृजन्ति [पापानि दुःखमूलानि येन” [यजु० ३।३५ दयानन्दः] तथाभूतं नाम-ओ३म् (उत) अपि (यस्य देवाः) यस्याश्रये यमाश्रित्य मुमुक्षवः (त्रिषधस्थे स्वः-न निषेदुः) अकारोकारमकारात्मनामकं सह मात्रास्थानेषु यद्वा “कर्मोपासना ज्ञानेषु स्थानं यस्य” [ऋ० ४।५०।१ दयानन्दः] “सधस्थे समानस्थाने” [ऋ० ६।५२।१५ दयानन्दः] सुखमिवानुभवन्तो ये तिष्ठन्ति (अग्निः-ह नाम) सोऽग्निर्ज्ञानप्रकाशकोऽपि नाम प्रसिद्धः (उत) अपि (जातवेदाः) जातानि वेद यः सर्वज्ञः (ऋतस्य होता) अध्यात्मयज्ञस्य होता ग्रहीता (अध्रुक्) अद्रोग्धा-स्नेहकर्ता स हे ह्वातव्य देव ! (नः श्रुधी) अस्मान् शृणु स्वीकुरु ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Blazing brilliant and mighty sublime is that Spirit indeed whose refulgent and divine powers like paradisal bliss abide in the three regions of heaven, earth and the middle spaces. Agni, light and fire of the universe, is its name, animating all that is born in existence. O high priest of the yajnic dynamics of existence, clarion call of the universe, all love free from hate and animosity, pray listen to our call and prayer.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचे मुख्य किंवा प्रमुख स्वाभाविक नाव ‘ओ३म्’ आहे. त्याला जाणण्या, मानण्या व उपासना करण्याने दु:खांचे मूल अर्थात् पाप भस्म होतात व ज्ञान, कर्म, उपासनेद्वारे मुमुक्षू रोग दु:खापासून मुक्त होतात. तो परमात्मा उपासकांद्वारे केलेल्या स्तुती, प्रार्थना, उपासनेचा स्वीकारकर्ता आहे. ॥१४॥

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