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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त त्या मे॒ रौद्रा॑वर्चि॒मन्ता॒ नास॑त्याविन्द्र गू॒र्तये॒ यज॑ध्यै । म॒नु॒ष्वद्वृ॒क्तब॑र्हिषे॒ ररा॑णा म॒न्दू हि॒तप्र॑यसा वि॒क्षु यज्यू॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्या । मे॒ । रौद्रौ॑ । अ॒र्चि॒ऽमन्ता॑ । नास॑त्यौ । इ॒न्द्र॒ । गृ॒तये॑ । यज॑ध्यै । म॒नु॒ष्वत् । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे । ररा॑णा । म॒न्दू इति॑ । हि॒तऽप्र॑यसा । वि॒क्षु । यज्यू॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्या मे रौद्रावर्चिमन्ता नासत्याविन्द्र गूर्तये यजध्यै । मनुष्वद्वृक्तबर्हिषे रराणा मन्दू हितप्रयसा विक्षु यज्यू ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । त्या । मे । रौद्रौ । अर्चिऽमन्ता । नासत्यौ । इन्द्र । गृतये । यजध्यै । मनुष्वत् । वृक्तऽबर्हिषे । रराणा । मन्दू इति । हितऽप्रयसा । विक्षु । यज्यू इति ॥ १०.६१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (उत) और (त्या रौद्रौ-अर्चिमन्ता नासत्यौ) वे दोनों तुझ परमेश्वरप्रेरित ज्ञानज्योतिवाले सत्यव्यवहारकर्त्ता अध्यापक और उपदेशक (मे गूर्तये यजध्यै) मेरे उद्यम कार्य के लिए-अध्यात्मयज्ञ करने के लिए (मनुष्वत्) मननवाले के लिए (वृक्तबर्हिषे) गृहस्थोदक सम्बन्ध को त्यागे हुए के लिए-वैराग्यवान् के लिए (रराणा) विद्या में रमण करनेवालो (मन्दू) हर्षित करनेवालो-सुख देनेवालो (विक्षु) मनुष्यप्रजाओं में (हित प्रयसा यज्यू) हित के लिए प्रयतमान ज्ञानयज्ञ करनेवाले तुम होओ ॥१५॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक जैसे गृहस्थ आश्रम वालों को सांसारिक व्यवहारों तथा विद्याओं का अध्यापन उपदेश करते हैं, ऐसे ही गृहस्थ से निवृत्त वैराग्यवान् होते हुए वानप्रस्थ भी अध्यात्मयज्ञ और अध्यात्मविद्या का उपदेश करें ॥१५॥

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य उनके ब्रह्मचारी वा पुत्रों के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (उत) और (त्या) वे दोनों (रोद्रौ) कष्टों, दुःखों अज्ञान को दूर करने वाले, गुरु के पुत्रवत् शिक्षित, (अर्चिमन्ता) ज्वाला, कान्ति, और आदर सत्कार योग्य गुणों वाले, (नासत्यौ) कभी असत्य आचरण, भाषण न करने वाले, स्त्री पुरुष, वा माता पिता (मे गूर्तये) मुझे उपदेश करने और ऊपर उठाने और (यजध्यै) ज्ञान धनादि देने, सत्संग करने के लिये प्राप्त हों। वे (मनुष्वत्) मननशील ज्ञानी, (वृक्त-बर्हिषि) कुशादि काट कर यज्ञ के लिये तैयार हुए पुरुष के समान उत्तम कार्य के लिये सन्नद्ध मुझ पुरुष के उपकार के लिये (रराणा) अति प्रसन्न वा नाना सुख देते हुए (मन्दू) अति हर्षवान् होकर (विक्षु) प्रजाओं के सुखार्थ (हित-प्रयसा) उत्तम ज्ञान, अन्न देने वाले वा यत्न करने वाले, (यज्यू) दान, सत्संग पूजादि के योग्य हों। इष्टाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रौद्रौ अर्चिमन्तौ

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्रों में वर्णित राष्ट्रपति व सभा के सभ्यों ने प्रजा में से ही चुना जाना है, कहीं बाहर से तो इन्होंने आना नहीं । सो प्रत्येक प्रजावर्ग के सभ्य का उत्तम होना आवश्यक है । यह जीवन का उत्कर्ष प्राणसाधना से ही सम्भव है। ये प्राणापान 'नासत्या' हैं, [न असत्या] इनसे जीवन में असत्य नहीं रहता । सो प्रार्थना करते हैं कि हे (इन्द्र) = सब बुराई रूप शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (उत) = और (त्या) = वे (मे) = मेरे (मासत्या) = प्राणापान रौद्रौ बुराइयों के लिये रुद्ररूप हों, सब बुराइयों का प्रलय करनेवाले हों और वासनाओं का विलय करके ये (अर्चिमन्तौ) = ज्ञान की ज्वालावाले हों। मेरे जीवन में ज्ञान की ज्योति को ये जमानेवाले हों। इस प्रकार ये प्राणापान (गूर्तये) = [गूर्ति: praise स्तुति] स्तुति के लिये हों और (यजध्यै) = यज्ञों के लिये हों। इनकी साधना से मेरा मन प्रभु के स्तवन में लगे तो मेरे हाथ यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें । [२] (मनुष्वत्) = [मनु:-ज्ञानं ] ज्ञानवाले और (वृक्तबर्हिषे) = शुद्धान्तः करणवाले के लिये [वृक्तं बर्हिः येन, हित तस्मै ] (रराणा) = ज्ञान व पवित्रता को देते हुए ये प्राणापान (मन्दू) = आनन्दित करनेवाले हैं, (प्रयसा) = अन्नमयादि सब कोशों में धनों को निहित करनेवाले हैं, [प्रयस्] प्रत्येक कोश का जो भोजन है उसे ये प्राणापान देनेवाले हैं। (विक्षु) = प्रजाओं में ये प्राणापान ही (यज्यू) = यष्टव्य हैं, संगतिकरण योग्य हैं, ये प्राणापान ही पूज्य हैं, इन्हीं की आराधना करनी, ये ही सब कुछ देनेवाले हैं [यज्= देवपूजा, संगतिकरण दान] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान ही जीवन का उत्तम निर्माण करनेवाले हैं, सो ये ही यष्टव्य हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord almighty, pray may those two offsprings of Rudra, lord of mercy, justice and dispensation, Ashvins, twin powers of natural complementarity, commanding the light of life, dedicated to infallible truth, both happy, givers of joy, adorable in yajna with homage, come to me, ready on the holy grass with my people, advance our yajna and acknowledge our homage and prayer among our community of celebrants.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक जसे गृहस्थाश्रमी लोकांना सांसारिक व्यवहार व विद्या यांचे अध्यापन आणि उपदेश करतात, तसेच गृहस्थाश्रमातून निवृत्त झालेल्या वैराग्यवान वानप्रस्थींनीही अध्यात्मयज्ञ व अध्यात्मविद्येचा उपदेश करावा. ॥१५॥

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