ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 12
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प॒श्वा यत्प॒श्चा वियु॑ता बु॒धन्तेति॑ ब्रवीति व॒क्तरी॒ ररा॑णः । वसो॑र्वसु॒त्वा का॒रवो॑ऽने॒हा विश्वं॑ विवेष्टि॒ द्रवि॑ण॒मुप॒ क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठप॒श्वा । यत् । प॒श्चा । विऽयु॑ता । ब्ध॒न्त॑ । इति॑ । ब्र॒वी॒ति॒ । व॒क्तरि॑ । ररा॑णः । वसोः॑ । व॒सु॒ऽत्वा । का॒रवः॑ । अ॒ने॒हा । विश्व॑म् । वि॒वे॒ष्टि॒ । द्रवि॑णम् । उप॑ । क्षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
पश्वा यत्पश्चा वियुता बुधन्तेति ब्रवीति वक्तरी रराणः । वसोर्वसुत्वा कारवोऽनेहा विश्वं विवेष्टि द्रविणमुप क्षु ॥
स्वर रहित पद पाठपश्वा । यत् । पश्चा । विऽयुता । ब्धन्त । इति । ब्रवीति । वक्तरि । रराणः । वसोः । वसुऽत्वा । कारवः । अनेहा । विश्वम् । विवेष्टि । द्रविणम् । उप । क्षु ॥ १०.६१.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पश्चात् पश्वा वियुता) गृहस्थ के अनन्तर पशु प्रवृत्ति से रहित अध्यात्मसुखों को (बुधन्त-इति ब्रवीति) अन्यों को सम्बोधन करके, हे जनो ! तुम जानो, मैं भी जान चुका हूँ, ऐसा कहता है (वक्तरि रराणः) ज्ञानदाता-वेदवक्ता परमात्मा में रममाण हुआ (वसोः वसुत्वा कारवः) जो बसानेवाले धन का बसानेवाला सृष्टिकर्त्ता (अनेहाः) निर्दोष (विश्वं द्रविणं क्षु-उपविवेष्टि) समस्त धन को-भोजन को व्याप्त हो रहा है-स्वाधीन स्थापित कर रहा है ॥१२॥
विषय
निष्पाप जीवन का फल दीर्घ जीवन।
भावार्थ
(यत्) जब (पश्वा) ज्ञान के देखने वाले इन्द्रियगण से (वियुता) रहित स्थानों को (बुधन्त) जानते हैं तब (वक्तरि) उत्तम विद्वान् प्रवचन करने वाले गुरु के अधीन (वसोः) पितृ तुल्य गुरु वा आत्मा के (वसुत्वा) ज्ञान धन का स्वामी जन (रराणः) ज्ञान और बल में सुखी रहता हुआ (इति ब्रवीति) इस प्रकार कहता है कि हे (कारवः) स्तुतिकर्त्ता लोगो ! (अनेहा) निष्पाप मनुष्य ही (विश्वम् क्षु विश्वम् द्रविणम् उप विवेष्टि) समस्त अन्न और समस्त धन वा वीर्य को धारण करता है। अर्थात् शरीर में रहने वाला आत्मा यदि पाप नहीं करे तो देह की इन्द्रियों के आत्म-सामर्थ्य नष्ट नहीं होते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'सभा' राष्ट्रपति के प्रभाव से दूर हो
पदार्थ
[१] राष्ट्र का निरीक्षण करने के कारण, राष्ट्र का ध्यान करने के कारण [look after ] राष्ट्रपति यहाँ 'पश्यति इति' पशु शब्द से कहा गया है। यह सभा का प्रारम्भिक समारोह करके फिर सभा में प्रतिदिन आता नहीं, जिससे सभ्यों को सब प्रकार के दबाव से रहित होकर विचार का अवसर मिले (वियुता) = इस राष्ट्र-निरीक्षक राष्ट्रपति से अलग हुए हुए (पश्वा) = उसके पीछे, उसकी अनुपस्थिति में (यत्) = जो (बुधन्त) = ये सभ्य समझते हैं, राष्ट्रपति तो (इति ब्रवीति) = उस ही बात को कह देता है । सभ्यों से बनाये गये नियम को वह उद्घोषित कर देता है। वस्तुतः राष्ट्रपति अपनी सारी शक्ति को (वक्तरी) = वक्ताओंवाली सभा में (रराणः) = देनेवाला होता है, राष्ट्र संचालन के सारे अधिकार प्रायः सभा को प्राप्त होते हैं। राष्ट्रपति तो सभा में निश्चित किये गये कानून को प्रमाणित भर कर देता है । [२] (वसोः) = धन के द्वारा (वसुत्वा) = प्रजा के निवास को उत्तम बनानेवाली, अर्थात् प्रजा की आर्थिक स्थिति को ठीक करके उनके जीवन मापक को ऊँचा करनेवाला, (कारवः) = क्रियाशील (अनेहा:) = पाप से रहित राष्ट्रपति (विश्वं द्रविणम्) = सम्पूर्ण धन को (क्षु) = शीघ्रता से (उपविवेष्टि) = व्याप्त करनेवाला होता है । सम्पूर्ण कोश का स्वामी राष्ट्रपति ही होता है। वह इस बात का पूरा ध्यान करता है कि प्रजा से कर के रूप में प्राप्त धन का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग न हो जाए। एवं यह राष्ट्रपति सभा पर इष्ट नियन्त्रण को रखनेवाला होता है। उसका यह कर्त्तव्य होता है कि कार्य करनेवाली सभा के कार्यों पर दृष्टि रखे उन कार्यों में गलती न होने दे।
भावार्थ
भावार्थ- सभा के सभ्य कानून आदि का विचार करते समय राष्ट्रपति के दबाव में आकर कानून न बना बैठें। राष्ट्रपति भी सभा को अन्धाधुन्ध व्यय न करने दे ।
इंग्लिश (1)
Meaning
After the fulfilment of family obligations, the man having renounced the life of senses and materiality and exulting in the joy of divine revelation exclaims : O friends of knowledge and divine law, O celebrants of songs of divinity, the lord giver of the highest wealth and haven of peace, immaculate and free, brings us the ultimate food of divine joy and supreme wealth of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने सदैव गृहस्थाश्रमात राहणे योग्य नाही. योग्य वेळी त्याचा त्याग करून आध्यात्मिक सुखाकडे वळले पाहिजे. सर्व धनांना देणारा परमधन व सृष्टीचा रचनाकार परमात्मा आहे. त्यात स्वत: रमण करत इतरांनाही त्यात रमण करण्याचा उपदेश करावा. ॥१२॥
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