ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 7
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पि॒ता यत्स्वां दु॑हि॒तर॑मधि॒ष्कन्क्ष्म॒या रेत॑: संजग्मा॒नो नि षि॑ञ्चत् । स्वा॒ध्यो॑ऽजनय॒न्ब्रह्म॑ दे॒वा वास्तो॒ष्पतिं॑ व्रत॒पां निर॑तक्षन् ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒ता । यत् । स्वाम् । दु॒हि॒तर॑म् । अ॒धि॒ऽस्कन् । क्ष्म॒या । रेतः॑ । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः । नि । सि॒ञ्च॒त् । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । अ॒ज॒न॒य॒न् । ब्रह्म॑ । दे॒वाः । वास्तोः॑ । पति॑म् । व्र॒त॒ऽपाम् । निः । अ॒त॒क्ष॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिता यत्स्वां दुहितरमधिष्कन्क्ष्मया रेत: संजग्मानो नि षिञ्चत् । स्वाध्योऽजनयन्ब्रह्म देवा वास्तोष्पतिं व्रतपां निरतक्षन् ॥
स्वर रहित पद पाठपिता । यत् । स्वाम् । दुहितरम् । अधिऽस्कन् । क्ष्मया । रेतः । सम्ऽजग्मानः । नि । सिञ्चत् । सुऽआध्यः । अजनयन् । ब्रह्म । देवाः । वास्तोः । पतिम् । व्रतऽपाम् । निः । अतक्षन् ॥ १०.६१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(क्ष्मया सञ्जग्मानः) सन्तान की भूमिरूप पत्नी से सङ्गत होता हुआ, तथा (रेतः-निषिञ्चन्) गर्भाधान रीति से वीर्य का सिञ्चन करता हुआ (पिता स्वां दुहितरम्-अधिष्कन्) पिता अपनी कन्या को प्राप्त करता है-उत्पन्न करता है-पुत्र नहीं प्राप्त करता, तब (स्वाध्यः-देवाः-ब्रह्म जनयन्) दूरदर्शी विद्वान् ज्ञान को-गृहस्थ ज्ञान को नियम को प्रकट करते हैं, घोषित करते हैं (वास्तोष्पतिं व्रतपां निर्-अतक्षन्) उस कन्या को गृहपति-घर की स्वामी रूप में पितृकर्म की रक्षिका निर्धारित करते हैं ॥७॥
भावार्थ
यदि पुरुष के पत्नीसमागम अर्थात् वीर्यसिञ्चन करने पर पुत्र को न प्राप्त करके केवल कन्या को प्राप्त करता है, तब वह कन्या पितृकर्म की रक्षिका तथा पिता के घर की-सम्पत्ति की स्वामी होती है। ऐसी वेद की परम्परा एवं वैदिक विद्वानों की मान्यता है ॥७॥
विषय
पुत्र न होने की दशा में कन्या को ही पिता के धन का उत्तराधिकार।
भावार्थ
(यत्) जो (पिता) पिता (क्ष्मया सं-जग्मानः) अपनी भूमि, स्त्री से संगत होकर (रेतः निषिञ्चित्) वीर्य का आधान करता है और वह (स्वाम् दुहितरं) अपनी कन्या को ही (अधि-स्कन्) पुत्रवत् प्राप्त करे। (सु-आध्यः देवाः) उत्तम ध्यानी, ज्ञानी विद्वान् पुरुषों ने (ब्रह्म अजनयन्) यही वेद-ज्ञान प्रकट किया है कि वे ऐसे समय में (स्वां दुहितरम्) अपनी कन्या को या उससे ही (वास्तोः पतिम्) गृह का स्वामी और (व्रत-पाम्) सब कार्यों के पालक रूप उत्तराधिकारी पुत्र को (निर अतक्षन्) प्राप्त करें। अर्थात् उससे उत्पन्न नाती ही पिता के धन का वारिस बने। ‘शासद् वन्हिः’० इत्यादि मन्त्रों में भी यही भाव यास्क आदि विद्वानों ने प्रकट किया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
राष्ट्रपति सभा को चुनवाता है, सभा राष्ट्रपति को चुनती है
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (पिता) = राष्ट्र का रक्षक राष्ट्रपति (स्वां दुहितरम्) = अपनी पूरिका और अपनी कन्या के समान इस सभा को (अधिष्कन्) = अधिरूढ़ होता है [to ascend], अर्थात् सभा से शक्ति को लेकर सभा को भंग कर देता है। तो (क्ष्मया) = इस राष्ट्रभूमि से (संजग्मानः) = संगत होता हुआ, अर्थात् सारे राष्ट्रभार को अपने कन्धों पर लेता हुआ यह (रेतः) = सारी शक्ति को (निषिञ्चत्) = अपने में ही सिक्त करता है, सारी शक्ति को अपने में स्थापित करता है। इस प्रकार देश में चुनाव के लिये वातावरण को तैयार कर देता है। और चुनाव के हो जाने पर [२] (स्वाध्यः) = [सुध्यानाः सुकर्माणो वा सा०] उत्तम ध्यानवाले व उत्तम कर्मोंवाले (देवा:) = राष्ट्र व्यवहार के चलानेवाले देववृत्ति के चुने हुए सभ्य (ब्रह्म) = राष्ट्र के सबसे बड़े व्यक्ति को अजनयन् उत्पन्न करते हैं । अर्थात् वे राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। इसे ये (वास्तोष्पतिम्) = राष्ट्रगृह का रक्षक व (व्रतपाम्) = [नियम:- व्रतम् ] नियमों का पालन करानेवाला (निरतक्षन्) = निश्चय से बनाते हैं। राष्ट्रपति का कार्य यही है कि वह राष्ट्र की रक्षा करे, यह राष्ट्रपति ही अन्ततः सम्पूर्ण सैन्य का मुखिया होता है और राष्ट्र की शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा के लिये उत्तरदायी होता है। इस बात का भी इसने ध्यान करना होता है कि इसके अमात्य किसी प्रकार से कानून के विरोध में कोई कार्य न कर दें।
भावार्थ
भावार्थ - राष्ट्रपति सभाओं के सभ्यों का चुनाव कराता है। चुने जाने पर ये राष्ट्रपति को चुनते हैं । राष्ट्रपति के मुख्य कार्य राष्ट्र-रक्षण नियमों का पालन करवाना है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(क्ष्मया सञ्जग्मानः) सन्तानस्य भूमिरूपया भार्यया सङ्गच्छमानः (रेतः-निषिञ्चन्) वीर्यं गर्भाधानरूपेण निषिञ्चन् सन् (पिता स्वां दुहितरम्-अधिष्कन्) पिता स्वां कन्यां प्राप्नोति-उत्पादयति “स्कन् निस्सारयतु” [यजु० १।२६ दयानन्दः] “स्कन्दन्ति-प्राप्त होते हैं” [ऋ० ५।१।५१।३ दयानन्दः] न तु पुत्रं (स्वाध्यः-देवाः-ब्रह्म जनयन्) सु-आध्यातारः दूरदर्शिनो विद्वांसो ज्ञानं प्रादुर्भावयन्ति मन्यन्ते घोषयन्ति (वास्तोष्पतिं व्रतपां निर्-अतक्षन्) यत् तां कन्यां गृहस्य पतिं स्वामिनीं कर्मपालिकां पितृकर्मरक्षिकां निर्धारयन्ति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As the father, the sun, covers the skies and the earth, his counterpart, and, shedding his living light and lustre, fills them with the vitality of life, then the devas, radiant divinities of nature, create and form Agni, keeper of the vows of the law and master of the earthly home.
मराठी (1)
भावार्थ
जर पुरुषाच्या पत्नी समागमानंतर अर्थात वीर्यसिंचन केल्यावर पुत्र प्राप्त न होता केवळ कन्या प्राप्त झाली तर ती कन्या पितृकर्माची रक्षिका व पित्याच्या घराच्या संपत्तीची स्वामिनी होते. अशी वेदाची परंपरा व वैदिक विद्वानांची मान्यता आहे. ॥७॥
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