ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 14
परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि । परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपो॑ अ॒भि शोशु॑चानः ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । शृ॒णी॒हि॒ । तप॑सा । या॒तु॒ऽधाना॑न् । परा॑ । अ॒ग्ने॒ । रक्षः॑ । हर॑सा । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒र्चिषा॑ । मूर॑ऽदेवान् । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒सु॒ऽतृपः॑ । अ॒भि । शोशु॑चानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि । परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचानः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । शृणीहि । तपसा । यातुऽधानान् । परा । अग्ने । रक्षः । हरसा । शृणीहि । परा । अर्चिषा । मूरऽदेवान् । शृणीहि । परा । असुऽतृपः । अभि । शोशुचानः ॥ १०.८७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे तेजस्वी नायक ! (यातुधानान्) पीड़ा देनेवालों को (तपसा परा शृणीहि) तापक अस्त्र से चूर्ण कर दे (रक्षः) राक्षस को-दुष्ट को (हरसा परा शृणीहि) प्राणहारक तेज से नष्ट कर दे (मूरदेवान्) मूढ़ मनवाले अन्यों को मारनेवाले दुष्टों को (अर्चिषा परा शृणीहि) ज्वाला अस्त्र से नष्ट कर, (शोशुचानः) देदीप्यमान हुआ (असुतृपः) अन्यों के प्राणों से तृप्त होनेवाले दुष्टों को (अभि-परा-शृणीहि) आक्रमण करके नष्ट कर ॥१४॥
भावार्थ
सेनानायक को चाहिए कि पीड़ा देनेवाले राक्षसवृत्ति के मूढ़ जनों, जो दूसरों को मारने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं, ऐसे लोगों को तथा दूसरों के प्राणों से-प्राणों को तृप्त करनेवालों को नष्ट करे ॥१४॥
विषय
युद्धादि से प्रजा पीड़कों के नाश का उपदेश। मूलदेवों का रहस्य।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! तू (यातु-धानान्) पीड़ादायकों को (तपसा) संन्तापकारी साधनों से (परा शृणीहि) दूर तक मार भगा। (रक्षः) विघ्नकारी को (हरसा परा शृणीहि) संवरणकारी, अद्भुत आश्चर्यजनक साधन से दूर से ही नाश कर। (मूर-देवान्) मरने मारने वाले युद्धेच्छु, विजय चाहने वालों को वा मोह में पड़े हुओं को (अर्चिषा) अपनी तीव्रतायुक्त ज्वाला से (परा शृणीहि) दूर से ही पीड़ित कर। और तू (शोशुचानः) अति देदीप्यमान होकर (असु-तृपः) मनुष्यों के प्राणों से अपनी तृप्ति करने वालों वा केवल अपने प्राणों को ही तृप्त करने वाले को (अभि परा शृणीहि) उनका मुकाबला करके उनको पीड़ित करके दूर कर। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'तप, तेज व ज्योति' से पाप का दूर करना
पदार्थ
[१] (तपसा) = तप के द्वारा (यातुधानान्) = पीड़ा के देनेवालों को (पराशृणीहि) = सुदूर विनष्ट कर। जिस समय जीवन में तप की कमी आती है, भोगवृत्ति बढ़ती है, उसी समय मनुष्य औरों को पीड़ित करनेवाला बनता है । यदि प्रजा में तपस्या की भावना बनी रहे, तो उनके जीवनों में 'यातुधानत्व' आता ही नहीं । [२] हे (अग्ने) = राजन् ! (हरसा) = [ ज्वालितेन तेजसा द० १३ । ४१] तेजस्विता के द्वारा (रक्षः) = राक्षसी वृत्तिवालों को (पराशृणीहि) = सुदूर विशीर्ण करनेवाले होइये । तेजस्विता अशुभ वृत्तियों को विनष्ट करनेवाली है। तेजस्वी पुरुष रमण व मौज की वृत्ति से ही ऊपर उठ जाता है, सो उसे औरों के क्षय करने का विचार ही नहीं उठता। [३] (अर्चिषा) = ज्ञान की ज्वाला से मूरदेवान् मूर्खतापूर्ण व्यवहार करनेवालों को पराशृणीहि नष्ट करिये। ज्ञान के प्रसार के द्वारा मूर्खता के नष्ट होने पर सब व्यवहार विवेक व सभ्यता के साथ होने लगते हैं । [४] हे राजन् ! (अभि शोशुचानः) = आन्तरिक व बाह्य पवित्रता को करता हुआ अथवा प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या दोनों की दीप्ति को करता हुआ तू (असुतृपः) = केवल अपने प्राणों के तृप्त करने में लगे हुए लोगों को (परा) = दूर कर । आत्मविद्या इन्हें केवल निजू प्राणतृप्ति से ऊपर उठाये। ये जीवन का लक्ष्य 'आत्म-प्राप्ति' को बनाकर केवल प्राणपोषण की प्रवृत्ति से ऊपर उठनेवाले हों । यद्यपि ये ' असुतृप' समाज को इतनी हानि नहीं पहुँचाते जितनी कि 'यातुधान, रक्षस् व मूरदेव' पहुँचाते हैं, तथापि सम्पूर्ण राष्ट्र की उन्नति के लिये ऐसे लोगों का न होना आवश्यक ही है । विनाश हो, तेजस्विता से राक्षसीवृत्ति का विलोप हो
भावार्थ
भावार्थ - तप के द्वारा यातुधानत्व का और ज्ञान -प्रसार से मूरदेवत्व का मरण हो । प्रकृतिविद्या के साथ आत्मविद्या के उपदेश से मनुष्य असुतृप ही बने रहने से ऊपर उठें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे तेजस्विन् नायक ! (यातुधानान् तपसा परा शृणीहि) पीडाधारकान् तापकास्त्रेण चूर्णय (रक्षः-हरसा परा शृणीहि) राक्षसं प्राणहारकतेजसा नाशय (मूर-देवान्-अर्चिषा परा शृणीहि) मूढमनसोऽन्यस्य मारणे क्रीडिनो दुष्टान् ज्वालास्त्रेण नाशय (शोशुचानः-असुतृपः-अभि परा-शृणीहि) देदीप्यमानोऽन्येषां प्राणैस्तृप्यतो दुष्टान्-अभिक्रम्य नाशय ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, shatter the violent with heat, destroy the demonic with passion, destroy the destroyers with blaze, and destroy the devitalizers with light.
मराठी (1)
भावार्थ
सेनानायकाने त्रास देणाऱ्या राक्षसवृत्तीच्या व जे मूढ जन दुसऱ्यांना मारण्यात प्रसन्नतेचा अनुभव करतात अशा लोकांना, तसेच इतरांचे प्राण घेऊन तृप्त होणाऱ्यांना नष्ट करावे. ॥१४॥
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