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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 20
    ऋषिः - पायुः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं नो॑ अग्ने अध॒रादुद॑क्ता॒त्त्वं प॒श्चादु॒त र॑क्षा पु॒रस्ता॑त् । प्रति॒ ते ते॑ अ॒जरा॑स॒स्तपि॑ष्ठा अ॒घशं॑सं॒ शोशु॑चतो दहन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । त्वम् । प॒श्चात् । उ॒त । र॒क्ष॒ । पु॒रस्ता॑त् । प्रति॑ । ते । ते॒ । अ॒जरा॑सः । तपि॑ष्ठाः । अ॒घऽशं॑सम् । शोशु॑चतः । द॒ह॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने अधरादुदक्तात्त्वं पश्चादुत रक्षा पुरस्तात् । प्रति ते ते अजरासस्तपिष्ठा अघशंसं शोशुचतो दहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । अग्ने । अधरात् । उदक्तात् । त्वम् । पश्चात् । उत । रक्ष । पुरस्तात् । प्रति । ते । ते । अजरासः । तपिष्ठाः । अघऽशंसम् । शोशुचतः । दहन्तु ॥ १०.८७.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 20
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे तेजस्वी नायक ! (त्वं नः) तू हमें (अधरात्) दक्षिण दिशा से (उदक्तात्) उत्तरदिशा से (त्वं) तू (पश्चात्) पश्चिमदिशा से (उत) और (पुरस्तात्) पूर्व दिशा से (रक्ष) सुरक्षित कर (ते) तेरे (ते-अजरासः) वे जीर्णतारहित स्थिर (तपिष्ठाः) अतितापक (शोशुचतः) देदीप्यमान प्रहार (अघशंसं दहन्तु) पापप्रशंसक पापकारी शत्रु को दग्ध करें ॥२०॥

    भावार्थ

    नायक सब दिशाओं से रक्षा करनेवाला अपने ज्वलन्त प्रहारों से शत्रु को दग्ध करनेवाला होना चाहिए ॥२०॥

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    विषय

    सब ओर से प्रजा-रक्षा और दुष्ट-नाश का आदेश।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (त्वं) तू (नः) हमारी (अधरात्, उदक्तात्) नीचे से और ऊपर से और (त्वं) तू (पश्चात् उत पुरस्तात्) पीछे से और आगे से (रक्ष) रक्षा कर। (शोशुचतः ते) तेज से तेजस्वी तेरे (ते) वे नाना (अजरासः) बाण आदि फेंकने वाले वा कभी नष्ट न होने वाले, अव्यर्थ (तपिष्ठाः) खूब पीड़ादायक साधन, वा वीर पुरुष (अघशंसं) पाप से दूसरों की हिंसा करने वाले को (प्रति दहन्तु) प्रतिक्षण दग्ध करें, जलावें, निरन्तर पीड़ित करें। इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अघशंस-दहन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (अधरात्) = नीचे से (उदक्तात्) = ऊपर से अर्थात् दक्षिण से तथा उत्तर से (त्वम्) = आप (पश्चात्) = पीछे से (उत) = और (पुरस्तात्) = सामने से अर्थात् पश्चिम से और पूर्व से रक्षा रक्षित करिये । [२] (शोशुचतः) = सर्वत्र पवित्रता का व दीप्ति का संचार करनेवाले (ते) = आपके (ते) = वे (अजरासः) = कभी जीर्ण न होनेवाले (तपिष्ठाः) = अत्यन्त सन्तापक दण्ड (अघशंसम्) = पाप का शंसन करनेवाले को (दहन्तु) = भस्म कर दे। आपकी फैलाई हुई ज्ञानरश्मियों से इनकी अघशंसन की वृत्ति समाप्त हो जाए। ये ठीक मार्ग को देखकर अशुभ मार्ग से विमुख हो जाएँ । राजा को भी यही चाहिए कि राष्ट्र में सत्य ज्ञान के प्रसार की ऐसी व्यवस्था करे कि लोग अशुभ बातों का शंसन न करते रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें सब ओर से रक्षित करें। प्रभु का प्रकाश व प्रभु से दिये जानेवाले दण्ड अशुभ के शंसन की वृत्ति को समाप्त करनेवाले हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे तेजस्विन् नायक ! (त्वं नः) त्वमस्मान् (अधरात्) दक्षिणदिक्तः (उदक्तात्) उत्तरदिक्तः (त्वं पश्चात्) त्वं पश्चिमदिक्तः (उत)(परस्तात्) पूर्वदिक्तः (रक्ष) पाहि (ते) तव (ते-अजरासः-तपिष्ठाः) ते खलु जीर्णतारहिताः स्थिरा अतितापकाः (शोशुचतः) देदीप्यमानाः प्रहाराः (अघशंसं दहन्तु) पापप्रशंसकं पापकारिणं शत्रुं भस्मीकुर्वन्तु ॥२०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, pray protect us from below, from above, from behind and in front against the oppressors facing us. May those unaging flames shining and blazing burn down the malignant and sinful enemies of life to ashes.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    नायक सर्व दिशांकडून रक्षण करणारा व आपल्या ज्वलंत प्रहारांनी शत्रूला दग्ध करणारा असावा. ॥२०॥

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