ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 21
ऋषिः - पायुः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प॒श्चात्पु॒रस्ता॑दध॒रादुद॑क्तात्क॒विः काव्ये॑न॒ परि॑ पाहि राजन् । सखे॒ सखा॑यम॒जरो॑ जरि॒म्णेऽग्ने॒ मर्ताँ॒ अम॑र्त्य॒स्त्वं न॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप॒श्चात् । पु॒रस्ता॑त् । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । क॒विः । काव्ये॑न । परि॑ । पा॒हि॒ । रा॒ज॒न् । सखे॑ । सखा॑यम् । अ॒जरः॑ । ज॒रि॒म्णे । अग्ने॑ । मर्ता॑न् । अम॑र्त्यः । त्वम् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पश्चात्पुरस्तादधरादुदक्तात्कविः काव्येन परि पाहि राजन् । सखे सखायमजरो जरिम्णेऽग्ने मर्ताँ अमर्त्यस्त्वं न: ॥
स्वर रहित पद पाठपश्चात् । पुरस्तात् । अधरात् । उदक्तात् । कविः । काव्येन । परि । पाहि । राजन् । सखे । सखायम् । अजरः । जरिम्णे । अग्ने । मर्तान् । अमर्त्यः । त्वम् । नः ॥ १०.८७.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 21
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने राजन्) हे अग्रणायक सर्वत्र राजमान-विराजमान-परमात्मन् ! (कविः काव्येन) तू शास्त्रकलाविज्ञ होता हुआ शास्त्रकलाप्रकार से (पश्चात्) पश्चिम से (पुरस्तात्) पूर्व से (अधरात्) दक्षिण से (उदक्तात्) उत्तर से (परि पाहि) परिपालन कर (सखे) हे मित्र ! (सखायम्) मुझ मित्र को (अजरः) जरारहित हुआ (जरिम्णे) जरा भाव-जब तक जरा हो-जरापर्यन्त (अमर्त्य) हे मरणधर्मरहित (मर्त्यान्) मरणधर्मवाले (नः) हमें (त्वम्) तू परिपालित कर ॥२१॥
भावार्थ
परमात्मा अपने उपासकों की समस्त दिशाओं से रक्षा करता है, जरापर्यन्त जीवन प्रदान करता है ॥२१॥
विषय
प्रजा-रक्षा मित्ररक्षा का उपदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! विद्वन् ! हे (सखे) मित्र ! (अमर्त्यः त्वम्) किसी को न मारने वा किसी का प्राण नाश न करने हारा तू (नः मर्त्तान्) हम मनुष्यों की (पश्चात् पुरस्तात् अधरात् उदक्तात्) पीछे से, आगे से, नीचे से और उपर से (काव्येन पारिपाहि) विद्वान्, बुद्धिमानों के बनाये विधान आदि से सब प्रकार से रक्षा कर। हे (राजन्) राजन् ! तेजस्विन् ! प्रजा के चित्त को प्रसन्न करने हारे ! तू (अजरः) न नाश होने वाला (अमर्त्यः) अमरणधर्म होकर (सखायं परि पाहि) मित्र रूप प्रजावर्ग और मित्रवर्ग की रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
रक्षण व पूर्ण जीवन
पदार्थ
[१] हे (राजन्) = ज्ञानदीप्त प्रभो ! अथवा ब्रह्माण्ड के नियमित [reguleted] करनेवाले प्रभो ! आप (कविः) = क्रान्तदर्शी तत्त्वज्ञानी हैं। आप (काव्येन) = इस वेदरूप अजरामर काव्य के द्वारा [पश्यदेवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति] पश्चात् (पुरस्तात्) = पीछे व आगे से, पश्चिम व पूर्व से (अधरात् उदक्तात्) = नीचे व ऊपर से, दक्षिण व उत्तर से हमें (परिपाहि) = रक्षित करिये। आपके इस काव्य की प्रेरणा के अनुसार चलते हुए हम सदा सुरक्षित जीवन बिता पायें। [२] हे (सखे) = मित्र प्रभो! आप (सखायम्) = अपने सखा मुझको रक्षित करिये। 'मित्र' मित्र का रक्षण करता ही है, मित्र का मित्रत्व है ही यह कि वह रक्षण करता है 'प्रमीतेः त्रायते' । [३] हे (अग्ने) = सब रोगों व पापों से बचाकर आगे ले चलते हुए (त्वम्) = आप न हमें (अजर:) = अजर - जरारहित होते हुए (जरिम्णे) = पूर्ण जरावस्थावाले दीर्घजीवन के लिये प्राप्त कराइये । (अमर्त्यः) = आप अमर्त्य हैं । हम (मर्तान्) = मरणधर्मा अपने मित्रों को आप पूर्ण जीवनरूप अमरता को प्राप्त करानेवाले हों। आपके मित्र बनकर हम पूरे सौ वर्ष तक जीनेवाले बनें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें वेदरूप काव्य के द्वारा पाप से बचाकर पूर्ण जीवन प्राप्त करायें ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने राजन्) हे तेजस्विन् राजमान नायक ! (कविः काव्येन) त्वं शास्त्रकलाविज्ञः सन् शास्त्रकलाप्रकारेण (पश्चात्) पश्चिमतः (पुरस्तात्) पूर्वदिक्तः (अधरात्) दक्षिणतः (उदक्तात्) उत्तरतः (परि पाहि) परिपालय (सखे) हे सखे ! (सखायम्) सखायं मां (अजरः) जरारहितः सन् (जरिम्णे) जराभावाय यावज्जरा-जरापर्यन्तं (अमर्त्य) हे मरणधर्मरहित ! (मर्त्यान्) मरणधर्मवतः (नः) अस्मान् (त्वं) त्वं परिपालय ॥२१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O refulgent ruler, divine visionary, protect us all round, from the back and front, from above and below, as now and hereafter, by the light of your vision and wisdom. O Agni, unaging friend, immortal divinity, save the mortals, save your friend, bless us all mortals to live a happy life till a full age of fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या उपासकांचे संपूर्ण दिशांनी रक्षण करतो. वृद्धावस्थेपर्यंत जीवन प्रदान करतो. ॥२१॥
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