ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 16
ऋषिः - पायुः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यः पौरु॑षेयेण क्र॒विषा॑ सम॒ङ्क्ते यो अश्व्ये॑न प॒शुना॑ यातु॒धान॑: । यो अ॒घ्न्याया॒ भर॑ति क्षी॒रम॑ग्ने॒ तेषां॑ शी॒र्षाणि॒ हर॒सापि॑ वृश्च ॥
स्वर सहित पद पाठयः । पौरु॑षेयेण । क्र॒विषा॑ । स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते । यः । अश्व्ये॑न । प॒शुना॑ । या॒तु॒ऽधानः॑ । यः । अ॒घ्न्यायाः॑ । भर॑ति । क्षी॒रम् । अ॒ग्ने॒ । तेषा॑म् । शी॒र्षाणि॑ । हर॑सा । अपि॑ । वृ॒श्च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधान: । यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥
स्वर रहित पद पाठयः । पौरुषेयेण । क्रविषा । सम्ऽअङ्क्ते । यः । अश्व्येन । पशुना । यातुऽधानः । यः । अघ्न्यायाः । भरति । क्षीरम् । अग्ने । तेषाम् । शीर्षाणि । हरसा । अपि । वृश्च ॥ १०.८७.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अग्ने) हे तेजस्वी नायक ! (यः-यातुधानः) जो यातनाधारक दुष्ट प्राणी है (पौरुषेयेण क्रविषा) मनुष्य के अन्दर होनेवाले मांस से (समङ्क्ते) अपने को पुष्ट करता है (यः-अश्व्येन पशुना) जो भी पशुओं में साधु पशु के द्वारा सम्पुष्ट करता है (यः-अघ्न्यायाः क्षीरं भरति) जो अहन्तव्य गौ के दूध को हरता है-नष्ट करता है-दूषित करता है (तेषां शीर्षाणि हरसा वृश्च) उनके शिरों को या उनके शिरवत् वर्तमान प्रमुख जनों को हरणकारक शस्त्र-अस्त्र साधन से छिन्न-भिन्न कर, नष्ट कर ॥१६॥
भावार्थ
तेजस्वी नायक को चाहिए कि जो राष्ट्र में पीड़ा पहुँचानेवाले प्राणी मनुष्य के मांस को खाकर अपने को पुष्ट करते हैं या अच्छे घोड़ों को नष्ट करते हैं, गौवों के दूध छीनते-सुखाते हैं-दूषित करते हैं उनके शिरों और उनके प्रमुख जनों को नष्ट करे ॥१६॥
विषय
मांस-निषेध
शब्दार्थ
(य: यातुधान:) जो राक्षस, दुष्ट (पौरुषेयेण) पुरुषसम्बन्धी मांस से (सम् अङ् क्ते) अपने शरीर को पुष्ट करते हैं (य:) जो क्रूर लोग (अश्व्येन) घोड़े के मांस से और (पशुना) पशु के मांस से अपना उदर भरते हैं (अपि) और भी (य:) जो (अध्न्यायाः) अहिंसनीय गौ के (क्षीरम्) दूध को (भरति) हरण करते हैं (अग्ने) हे तेजस्वी-राजन् ! (तेषां) उन सब राक्षसों के (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने तेज से (वृश्च) काट डाल ।
भावार्थ
मन्त्र में राजा के लिए आदेश है कि - १. जो मनुष्यों का मांस खाते हैं, २. जो घोड़ों का मांस खाते हैं, ३. जो अन्य पशुओं का मांस खाते हैं और ४. जो बछड़ों को न पिलाकर गौ का सारा दूध स्वयं पी लेते हैं, हे राजन् ! तू अपने तीव्र शस्त्रों से ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के सिरों को काट डाल । इस मन्त्र के अनुसार किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध है । ‘अध्न्याया क्षीरं भरति’ का यही अर्थ सम्यक् है कि जो बछड़े को न पिलाकर सारा दूध स्वयं ले लेते हैं । इस मन्त्र से गोदुग्ध पीनेवालों को मार दे ऐसा भाव लेना ठीक नहीं है क्योंकि वेद में अन्यत्र कहा गया है ‘पयः पशूनाम्’ (अथर्व० १९ । ३१ । ५) हे मनुष्य ! तुझे पशुओं का केवल दूध ही लेना है ।
विषय
पीड़ा देकर स्वयं ऐश्वर्य भोक्ता को दण्ड।
भावार्थ
हे (नृ-चक्षः) मनुष्यों के अध्यक्ष ! (यातु-धानः) प्रजाओं में अन्यों को पीड़ा देने वाला पुरुष (उस्त्रियायाः) गौ के (संवत्सरीणं) वर्ष भर में पैदा होने वाले (पयः) दूध को (मा अशीत्) मत खावे अर्थात् दण्डरूप में उसे गौ का दूध साल भर तक पीने को न मिले। और उन दण्डितों में से (यतमः पीयूषम् तितृप्सात्) जो कोई दूध पी लेवे, (तं प्रत्यंचम्) उस आज्ञा-भंगकारी, विपरीतगामी को (अर्चिषा) जलते अग्निमय शस्त्र से (मर्मन् विध्य) मर्मस्थान पर वेध, ताड़ित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
क्रूरता को रोकना
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = राजन् ! (तेषाम्) = उनके (शीर्षाणि) = सिरों को (हरसा) = अपने ज्वलित तेज से (वृश्च) = तू छिन्न करनेवाला हो । अर्थात् इनको उचित दण्ड देकर उनके अपवित्र कार्यों से उन्हें रोक । सबसे प्रथम उसको रोक (यः) = जो (पौरुषेयेण) = पुरुष सम्बन्धी (क्रविषा) = मांस से (समङ्क्ते) = अपने को संगत करता है। नर-मांस के वर्धन की कामना करता है । [२] (यः) = जो (अश्व्येन) = घोड़े के मांस से अपने को संगत करता है घोड़े के मांस को खाता है अथवा घोड़े को दिन-रात जोते रखकर अपने भोग बढ़ाने का यत्न करता है । (यः यातुधानः) = जो औरों को पीड़ित करनेवाला (पशुना) = अन्य पशुओं से, अन्य पशुओं को पीड़ित करके अपने धन को बढ़ाना चाहता है, गधे आदि पर अधिक बोझ लादकर अपनी अतिरिक्त आजीविका सिद्ध करने के लिये यत्नशील होता है। [३] और (यः) = जो (अघ्न्यायाः) = अहन्तव्य गौ के (क्षीरम्) = दूध को (भरति) = दोहने की बजाय पीड़ित करके हरना चाहता है [हरति- भरति ] । बछड़े को भी उचित मात्रा में दूध न देकर जो सारे दूध को ले लेने की कामना करता है उसे राजा दण्ड देकर इस अपराध से रोके। मनुष्यों पर, घोड़ों पर, अन्य पशुओं पर तथा गौवों पर होनेवाली क्रूरता को दूर करना यह राज कर्त्तव्य है ।
भावार्थ
भावार्थ - राजनियम ऐसा हो कि कोई भी मनुष्य अन्य मनुष्यों पर, घोड़े व अन्य पशुओं पर व गौवों पर क्रूरता न कर सके ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे तेजस्विन् नायक ! (यः-यातुधानः) यो यातनाधारको दुष्टः प्राणी (पौरुषेयेण क्रविषा) पुरुषे भवेन मांसेन-अन्नभूतेन “क्रविषः क्रमितुं योग्यस्यान्नस्य” [ऋ० १।१५१।१० दयानन्दः] (समङ्क्ते) स्वात्मानं सम्पोषयति (यः अश्व्येन पशुना) योऽपि खल्वश्वेषु साधुना पशुना सम्पोषयति हृत्वा समलङ्करोति वा (यः-अघ्न्यायाः क्षीरं भरति) योहन्तव्याया गोर्दुग्धं हरति नाशयति दूषयति (तेषां शीर्षाणि हरसा वृश्च) तेषां शिरांसि शिरोवद्वर्त्तमानान् प्रमुखान् जनान् हरणकारकेण शस्त्रास्त्रसाधनेन छिन्धि ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever feeds himself upon the flesh of humanity, whoever prospers by animal wealth at the cost of animal wealth by destroying it, whoever carries off the milk of the inviolable cow and destroys the fertility of the earth, O Agni, strike off their heads with light and passion for truth.
मराठी (1)
भावार्थ
जे राष्ट्राला त्रस्त करणारे प्राणी माणसांचे मांस खाऊन स्वत:ला पुष्ट करतात किंवा उत्तम घोडे नष्ट करतात, गायीचे दूध हिसकावून घेतात, नष्ट करतात. त्यांचे मस्तक व त्यांचे प्रमुख लोक यांना तेजस्वी नायकाने अस्त्र-शस्त्रांनी छिन्नविछिन्न केले पाहिजे. ॥१६॥
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