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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पायुः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒ताल॑ब्धं स्पृणुहि जातवेद आलेभा॒नादृ॒ष्टिभि॑र्यातु॒धाना॑त् । अग्ने॒ पूर्वो॒ नि ज॑हि॒ शोशु॑चान आ॒माद॒: क्ष्विङ्का॒स्तम॑द॒न्त्वेनी॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । आऽल॑ब्धम् । स्पृ॒णु॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । आ॒ऽले॒भा॒नात् । ऋ॒ष्टिऽभिः॑ । या॒तु॒ऽधाना॑त् । अग्ने॑ । पूर्वः॑ । नि । ज॒हि॒ । शोशु॑चानः । आ॒म॒ऽअदः॑ । क्ष्विङ्काः॑ । तम् । अ॒द॒न्तु॒ । एनीः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतालब्धं स्पृणुहि जातवेद आलेभानादृष्टिभिर्यातुधानात् । अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमाद: क्ष्विङ्कास्तमदन्त्वेनी: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । आऽलब्धम् । स्पृणुहि । जातऽवेदः । आऽलेभानात् । ऋष्टिऽभिः । यातुऽधानात् । अग्ने । पूर्वः । नि । जहि । शोशुचानः । आमऽअदः । क्ष्विङ्काः । तम् । अदन्तु । एनीः ॥ १०.८७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जातवेदः-अग्ने) हे प्राप्त अवसर को जाननेवाले अग्रणी सेनानायक ! (आलब्धं स्पृणुहि) प्राप्त स्वराज्य के आलम्भक यातनाधारक शत्रु से (ऋष्टिभिः) हिंसक शस्त्रास्त्रों से प्राप्त को भी सेवन कर (शोशुचानः) तेज से देदीप्यमान प्रमुख हुआ (नि जहि) नितान्त नष्ट कर (आमादः क्ष्विङ्काः-एनीः) अपक्व मांसभक्षणशील शब्द करनेवाली चरनेवाली वनचर जन्तुजातियाँ (तम्-अदन्तु) उनको खावें ॥७॥

    भावार्थ

    सेनानायक प्राप्त स्वराज्य को स्वाधीनता से सेवन करे और आक्रमणकारी शत्रु से शस्त्रों के बल पर प्राप्त किये गये धन का भी सेवन करे। इस प्रकार तेजस्वी सेनानी शत्रुओं का नाश करे कि घूमते-फिरते भाँति-भाँति शब्द करते हुए वनचर जन्तु उनका भक्षण कर जाएँ ॥७॥

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    विषय

    स्वामी को दुष्ट जनों से प्रजा को बचाने का कर्त्तव्य। दुष्टों को बुरी मृत्यु से पीड़ित करने वा मारने का आदेश।

    भावार्थ

    हे (जात-वेदः) भूमि में या राष्ट्र में उत्पन्न हुए प्रत्येक बच्चे, मनुष्यादि को भी अपना धन मानने वाले, सब उत्पन्न जीवों के स्वामिन् ! हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (उत) और तू (आलेभानात्) प्रजा के जनों को पकड़ लेने वाले (यातु-धानान्) पीड़ाकारी बन्धन बांधने वाले दुष्ट से (आलब्धं) पकड़े हुए प्रजावर्ग को (स्पृणुहि) बचा। (ऋष्टिभिः) दुष्टों को सन्तप्त करने वाले साधनों द्वारा उस से उसकी रक्षा कर। प्रजा के किसी व्यक्ति को भी यदि दूसरा राज्य पकड़ ले या कोई डाकू या दुष्ट जन पकड़ लें तो राजा उसको उन से बचावे। हे राजन् ! तू (पूर्वः) पालक होकर (शोशुचानः) पापी को सन्तप्त करता और तेज से चमकता हुआ (आमादः) कच्चे मांस को खाने वाले दुष्टों को (नि जहि) सर्वथा और खूब दण्डित कर। उसको (क्ष्विंकाः) नाना शब्द करने वाली (एनीः) वेग से उड़ने वाली चीलें (तम् अदन्तु) उसको खावें। जो व्यक्ति मांस लोभी प्रजा के जनों का कच्चा मांस खाजावें, राजा उनको मांसखोर जानवरों से फड़वा डाले। उनका आहार करा दे। जिससे अपने दुःख अनुभव करके दूसरे के मांस खाने का दोष उनको अनुभव हो और वे बुरे मार्ग से हटें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अपरिपक्वता को दूर करनेवाली ज्ञान की वाणियाँ

    पदार्थ

    [१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! गत मन्त्र के अनुसार आप मेरी बुद्धि को तीव्र करिये (उत) = और (आलेभानात्) = पकड़ लेनेवाले (यातुधानात्) = पीड़ा के कारणभूत राक्षसी भाव से (आलब्धम्) = पकड़े हुए मुझे आप (ॠष्टिभिः) = [ऋष गतौ, ऋषि दर्शनात्] क्रियाशीलता व ज्ञानरूप अस्त्रों के द्वारा (स्पृणुहि) = रक्षित करिये। मैं ज्ञान प्राप्ति में लगा हुआ होकर तथा क्रियाशील बनकर अपने को वासनाओं का शिकार होने से बचाऊँ । [२] अग्ने - हे अग्रेणी प्रभो ! (शोशुचानः) = ज्ञान से दीप्त होते हुए आप मुझे भी इस ज्ञान दीप्ति को प्राप्त कराने के द्वारा (पूर्वः) = [ पृ पालनपूरणयोः] मेरा पालन व पूरण करनेवाले होते हुए (निजहि) = इन राक्षसी भावों को नष्ट कर दीजिये । [३] (आमादः) = [आम अद्] कच्चेपन को समाप्त कर देनेवाली (एनी:) = उज्वल - शुभ्र (क्ष्विङ्काः) = ज्ञान की वाणियाँ (तम्) = उस राक्षसी भाव को (अदन्तु) = खा जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे अशुभ भाव दूर होकर हमारे जीवनों में शुद्ध भावों का वर्धन हो। ये ज्ञान की वाणियाँ हमारी अपरिपक्वता को दूर कर दें । परिपक्व विचारों के बनकर हम इन अशुभ वासनाओं में न फँस जाएँ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जातवेदः-अग्ने) हे प्राप्तावसरस्य वेत्तः ! अग्रणीः सेनानायक ! (आलब्धम्  स्पृणुहि) प्राप्तं गृहीतं स्वराज्यं सेवस्व “स्पृ प्रीतिसेवनयोः” [स्वादि०] (उत) अपि च (आलेभानात्-यातुधानात्) स्वराज्यस्यालम्भकात् खलु यातनाधारकात् शत्रोः (ऋष्टिभिः) हिंसकशस्त्रास्त्रैः “ऋष्टयः शस्त्रास्त्राणि” [ऋ० १।५।५४ दयानन्दः] लब्धमपि सेवस्वेत्यर्थः (शोशुचानः) तेजसा देदीप्यमानः प्रमुखः सन् (नि जहि) नितान्तं नाशय (आमादः क्ष्विङ्काः-एनीः-तम्-अदन्तु) अपक्वमांस-भक्षणशीलाः शब्दकारिण्यो गन्त्र्यो वनचरजातयस्तान् भक्षयन्तु ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, first and foremost power, bright and blazing, knowing and commanding over everything born, with the strike of your force, power and punishment, release the innocents caught up in the clutches of the forces of violence and terror, destroy the carnivorous, blood suckers and eaters into the flesh, and let them be thrown to the vociferous vultures.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सेनानायकाने आपले राज्य नेहमी स्वाधीन ठेवावे व आक्रमणकारी शत्रूकडून शस्त्रांच्या बलावर प्राप्त केलेले धनही घ्यावे. या प्रकारे तेजस्वी सेनानीने शत्रूंचा नाश करावा. निरनिराळे आवाज काढणाऱ्या वनचर प्राण्यांनीही त्यांचे मांस भक्षण करावे. ॥७॥

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