ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
ऋषिः - पायुः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अयो॑दंष्ट्रो अ॒र्चिषा॑ यातु॒धाना॒नुप॑ स्पृश जातवेद॒: समि॑द्धः । आ जि॒ह्वया॒ मूर॑देवान्रभस्व क्र॒व्यादो॑ वृ॒क्त्व्यपि॑ धत्स्वा॒सन् ॥
स्वर सहित पद पाठअयः॑ऽदंष्ट्रः । अ॒र्चिषा॑ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । उप॑ । स्पृ॒श॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । सम्ऽइ॑द्धः । आ । जि॒ह्वया॑ । मूर॑ऽदेवान् । र॒भ॒स्व॒ । क्र॒व्य॒ऽअदः॑ । वृ॒क्त्वी । अपि॑ । ध॒त्स्व॒ । आ॒सन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयोदंष्ट्रो अर्चिषा यातुधानानुप स्पृश जातवेद: समिद्धः । आ जिह्वया मूरदेवान्रभस्व क्रव्यादो वृक्त्व्यपि धत्स्वासन् ॥
स्वर रहित पद पाठअयःऽदंष्ट्रः । अर्चिषा । यातुऽधानान् । उप । स्पृश । जातऽवेदः । सम्ऽइद्धः । आ । जिह्वया । मूरऽदेवान् । रभस्व । क्रव्यऽअदः । वृक्त्वी । अपि । धत्स्व । आसन् ॥ १०.८७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(जातवेदः) हे प्राप्त अवसर को जाननेवाले (अयोदंष्ट्रः) लोहे के दाड़ों के समान तीक्ष्ण शस्त्रवाले सेनानायक ! (अर्चिषा) तेज से (यातुधानान्) पीड़ाधारक-पीड़ा देनेवाले को (उप स्पृश) पकड़-स्वाधीन कर (जिह्वया) प्रबल वाणी-ललकार से (मूरदेवान्) मूढ़ मनवाले-भ्रान्त करके (आ रभस्व) दबा (क्रव्यादः-वृक्त्वी-आसन्) मांसभक्षकों को उनके कार्य से वर्जित करके पुनः अपने मुख में प्रमुख बन्धन में (अपि-आ धत्स्व) बन्धी बना ॥२॥
भावार्थ
सेनानायक अवसर को जाननेवाला तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं को अपने अधीन करे तथा ललकारमात्र से उनको भ्रान्त करनेवाला हिंसक शत्रुओं को बन्धन में डालनेवाला होना चाहिये ॥२॥
विषय
प्रजानाशक दुष्ट के नाशार्थ शस्त्रादि-सम्पन्न शासक से विनीति।
भावार्थ
हे (जात-वेदः) धनों के स्वामिन् ! हे बुद्धिमन् ! तू (समिद्धः) खूब तेजस्वी होकर, (अयः-दंष्ट्रः) लोहों की सी दाढ़ों वाला, नाना शस्त्रास्त्रों से सम्पन्न, कठोर होकर (अर्चिषा) अपने तीव्र ज्वाला वा तेज से (यातु-धानान्) प्रजाओं को पीड़ा देने वाले दुष्टों को (उप स्पृश) पकड़, उनको अग्निवत् भस्म कर, उनको दमन कर नाश कर, और निर्मूल कर दे। और (जिह्वया) अपने वाणीमात्र के शासन से (मूरदेवान्) केवल मरने मारने की क्रीड़ा करने वाले, युद्ध व्यसनियों को, (क्रव्यादः) प्रजा के मांसों के खाने मांसों के खाने वाले, प्रजा के रक्तशोषी, प्रजा के प्राण-नाशक दुष्ट डाकुओं को, (रभस्व) वश कर। उनको (वृक्त्वी) काट कर, वृक्ष के तुल्य निर्मूल करके (आसन्) अपने मुख अर्थात् अपने वचन के शासन में (अपि धत्स्व) उनको रख।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञानाग्नि में पाप का भस्म होना
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (समिद्धः) = गत मन्त्र के अनुसार क्रतुओं द्वारा दीप्त होने पर (अयोद्रंष्ट्रः) = तीक्ष्ण दंष्ट्राओंवाले आप (अर्चिषा) = अपनी ज्ञान ज्वाला से (यातुधानान्) = पीड़ा का आधान करनेवाली इन राक्षसी वृत्तियों को (उपस्पृश) = समीपता से स्पर्श करते हुए भस्म कर देते हैं। आपके द्वारा सब अशुभ वृत्तियाँ दूर की जाती हैं । [२] आप (मूरदेवान्) = [दिव्-व्यवहारे] मूढ़तापूर्ण व्यवहारवालों को (जिह्वया) = ज्ञान ज्वाला के द्वारा [flame] (आरभस्व) = [to form] उत्तम जीवनवाला बनाइये । (क्रव्यादः) = मांस भक्षण करनेवालों को (वृक्त्वी) = इन अशुभ कर्मों से पृथक् करके (आसन्) = अपने मुख में, उपासना में (अपिधत्स्व) = धारण करिये। ज्ञान को प्राप्त करके हमारी वृत्ति अशुभ कर्मों से, मांस भक्षणादि से हटें और हम शुभ कर्मों में प्रवृत्त हों। उन कर्मों को हम कभी न करें जिनसे औरों की हानि करके अपनी मौज को प्राप्त करने की भावना हो ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान ज्वाला से अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं । उपासना के द्वारा जीवन की पवित्रता होती है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(जातवेदः) जातं प्राप्तमवसरं वेत्ति यः सः सम्बुद्धौ जातवेदः ! अवसरस्य वेत्तः ! सेनानायक ! (यो दंष्ट्रः) अयसो दंष्ट्रा दंशनः शस्त्रविशेषो यस्य स तथाभूतः “अयोदंष्ट्रान् अयोदंष्ट्रा येषु तान्” [ऋ० १।८८।५ दयानन्दः] (समिद्धः) प्रसिद्धः सन् (अर्चिषा) तेजसा ‘अर्चिः-तेजः’ [ऋ० ४।७।१ दयानन्दः] (यातुधानान्-उप-स्पृश) यातनाधारकान् दुष्टान् उपगृहाण स्वाधीनान् कुरु (जिह्वया) प्रबलवाचा “जिह्वा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (मूरदेवान्) मूढो देवो येषां तथाभूतान् “मनो देवः” [गो० १।२।१०] भ्रान्तान् कृत्वा (आ रभस्व) आक्राम (क्रव्यादः-वृक्त्वी-आसन्-अपि-आधत्स्व) मांसभक्षकान् तत्कार्याद्वर्जयित्वा पुनः स्वकीये मुखे प्रमुखे बन्धने स्थाने विधेहि बन्धी कुरु ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Omnipresent spirit of life and protection of existence, blazing with flames of fire and fierce with jaws of steel, destroy the anti-life elements with the touch of your lazer beams, seize the agents of death with flames, catch the blood suckers and flesh eaters with the jaws and crush them to naught.
मराठी (1)
भावार्थ
सेनानायक स्थान व प्रसंग जाणणारा असावा. तीक्ष्ण शस्त्रांनी शत्रूंना आपल्या अधीन करणारा असावा व विविध प्रकारचे ध्वनी काढून त्यांच्यात भ्रम पैदा करून हिंसकांना बंधनात घालणारा असावा. ॥२॥
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