ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 19
स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः । अनु॑ दह स॒हमू॑रान्क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒नात् । अ॒ग्ने॒ । मृ॒ण॒सि॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । न । त्वा॒ । रक्षां॑सि । पृत॑नासु । जि॒ग्युः॒ । अनु॑ । द॒ह॒ । स॒हऽमू॑रान् । क्र॒व्य॒ऽअदः॑ । मा । ते॒ । हे॒त्याः । मु॒क्ष॒त॒ । दैव्या॑याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः । अनु दह सहमूरान्क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥
स्वर रहित पद पाठसनात् । अग्ने । मृणसि । यातुऽधानान् । न । त्वा । रक्षांसि । पृतनासु । जिग्युः । अनु । दह । सहऽमूरान् । क्रव्यऽअदः । मा । ते । हेत्याः । मुक्षत । दैव्यायाः ॥ १०.८७.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 19
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे तेजस्वी नायक ! (यातुधानान्) यातनाधारकों को (सनात्-मृणसि) सदा से तू हिंसित करता है (रक्षांसि त्वा पृतनासु न जिग्युः) राक्षस दुष्ट तुझे संग्रामों में नहीं जीतते हैं (क्रव्यादः समूरान्-अनुदह) मांसभक्षकों को समूल अनुक्रम संदग्ध कर (ते दैव्यायाः-हेत्या मा मुक्षत) तेरी विद्युत् से युक्त प्रहार-शक्ति से मुक्त न हों ॥१९॥
भावार्थ
सेनानायक ऐसा होना चाहिए, जिसे संग्राम में शत्रुजन जीत न सके। ऐसा वैद्युत अस्त्र चलानेवाला हो, जिससे कोई न बच सके ॥१९॥
विषय
दुष्टों को कभी विना दण्ड दिये न छोड़ने का आदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी सेनापते ! तू (यातु-धानान्) पीड़ादायक दुष्ट पुरुषों को (सनात् एव मृणसि) सदा से ही नाश करता है। (रक्षांसि) दुष्ट-राक्षस लोग (पृतनासु) संग्रामों में (त्वा न जिग्युः) तुझे न जीत पावें। (सह-मूरान् क्रव्यादः) मूल वा मारने वाले शस्त्रास्त्र साधनों वा मारने वाले सैनिकों सहित क्रव्य अर्थात् मनुष्यों का मांस खाने वाले, वा प्रजाओं के अन्नों को खाजाने वाले, (ते) तेरे (दैव्यायाः) विजयशील सैनिकों के (हेत्याः) हननकारी अस्त्रों से (मा मुक्षत) मत छूटें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान- प्रसार व यातुधानत्व का अन्त
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = राष्ट्र के अग्रणी राजन् ! तू सनात् चिरकाल से (यातुधानान्) = इन प्रजा व पशुओं के पीड़कों को (मृणसि) = पीड़ित करता है। (त्वा) = तुझे (पृतनासु) = संग्रामों में (रक्षांसि) = ये राक्षसी वृत्ति के लोग (न) = नहीं (जिग्युः) = जीत पाते । [२] तू (क्रव्यादः) = इन मांस भक्षकों को (सहमूरान्) = जड़ समेत (अनुदह) = भस्म कर दे। इनको जड़ समेत भस्म करने का भाव यह है कि 'ये न तो मांस खायें और ना ही इनकी मांस खाने की रुचि रह जाए। विषय जायें, तो विषयरस भी जाये । (ते) = आपके (दैव्यायाः हेत्याः) = दिव्य वज्र से, प्रकाशमय वज्र से (मा मुक्षत) = कोई भी यातुधान मुक्त न रह जाए। ज्ञान प्रकाश के फैलने से उनका यातुधानत्व व क्रव्यादपना ही समाप्त हो जाए।
भावार्थ
भावार्थ - राजा राष्ट्र में ज्ञान प्रसार के द्वारा यातुधानत्व को समाप्त करे ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे तेजस्विन् नायक ! (यातुधानान्) यातनाधारकान् (सनात्-मृणसि) सदातनात्-खलु हिंससि “मृण हिंसायाम्” [तुदादि०] (रक्षांसि त्वा पृतनासु न जिग्युः) राक्षसा दुष्टास्त्वां सङ्ग्रामेषु “पृतनाः सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१७] न जयन्ति (क्रव्यादः समूरान्-अनुदह) मांसभक्षकान् समूलान् खल्वनुक्रमेण दग्धीकुरु (ते दैव्यायाः-हेत्या मा मुक्षत) तव विद्युद्युक्तायाः प्रहारिकायाः खलु मुक्ता न भवन्तु ॥१९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you destroy the oppressors since time immorial. Never can the evil dominate over you in their battles against the good. Let the flesh eaters alongwith the cruel and wicked be destroyed, and may they never escape the strike of your divine punishment and natural retribution.
मराठी (1)
भावार्थ
सेनानायक असा असावा, की त्याला युद्धात शत्रूजन जिंकू शकणार नाहीत. तसेच अशा प्रकारचे विद्युत अस्त्र चालविणारा असावा, की ज्यामुळे कोणीही जिवंत राहता कामा नये. ॥१९॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal