ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 17
सं॒व॒त्स॒रीणं॒ पय॑ उ॒स्रिया॑या॒स्तस्य॒ माशी॑द्यातु॒धानो॑ नृचक्षः । पी॒यूष॑मग्ने यत॒मस्तितृ॑प्सा॒त्तं प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ विध्य॒ मर्म॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒व्ँम्व॒त्स॒रीण॑म् । पयः॑ । उ॒स्रिया॑याः । तस्य॑ । मा । अ॒शी॒त् । या॒तु॒ऽधानः॑ । नृ॒ऽच॒क्षः॒ । पी॒यूष॑म् । अ॒ग्ने॒ । य॒त॒मः । तितृ॑प्सात् । तम् । प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्चिषा॑ । वि॒ध्य॒ । मर्म॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
संवत्सरीणं पय उस्रियायास्तस्य माशीद्यातुधानो नृचक्षः । पीयूषमग्ने यतमस्तितृप्सात्तं प्रत्यञ्चमर्चिषा विध्य मर्मन् ॥
स्वर रहित पद पाठसव्ँम्वत्सरीणम् । पयः । उस्रियायाः । तस्य । मा । अशीत् । यातुऽधानः । नृऽचक्षः । पीयूषम् । अग्ने । यतमः । तितृप्सात् । तम् । प्रत्यञ्चम् । अर्चिषा । विध्य । मर्मन् ॥ १०.८७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 17
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नृचक्षः-अग्ने) हे मनुष्यों के कर्मद्रष्टा नायक ! (यातुधानः) पीड़ा देनेवाले दुष्ट मनुष्य (उस्रियायाः-संवत्सरीणं तस्य पयः) गौ का वर्षपर्यन्त-वर्ष भर उस दूध को (मा-अशीत्) न पीवे, ऐसा उसे दण्ड दे (पीयूषं यतमः-तितृप्सात्) उस अमृतरूप दूध से अपने को जो तृप्त करना चाहे, (तं प्रत्यञ्चम्) उसे सबके प्रत्यक्ष-सम्मुख (अर्चिषा मर्मन् विध्य) ज्वाला अस्त्र से मर्म में बींधे-ताड़ित करे ॥१७॥
भावार्थ
सबके व्यवहारों को देखनेवाला नायक पीड़ा देनेवाले को गौ का दूध वर्ष भर तक न पीने दे। जो उस अमृतरूप दूध को पीकर अपने को तृप्त करना चाहे, उस ऐसे पीड़क जन को दूसरों के सम्मुख तीक्ष्ण शस्त्र से ताड़ित करे ॥१७॥
विषय
प्रजाजनों को पीड़ित करने वाले को दण्ड कि वर्ष भर उसे दूध न मिले, वह पीवे तो अग्नि दण्ड।
भावार्थ
हे (नृ-चक्षः) मनुष्यों के अध्यक्ष ! (यातु-धानः) प्रजाओं में अन्यों को पीड़ा देने वाला पुरुष (उस्त्रियायाः) गौ के (संवत्सरीणं) वर्ष भर में पैदा होने वाले (पयः) दूध को (मा अशीत्) मत खावे अर्थात् दण्डरूप में उसे गौ का दूध साल भर तक पीने को न मिले। और उन दण्डितों में से (यतमः पीयूषम् तितृप्सात्) जो कोई दूध पी लेवे, (तं प्रत्यंचम्) उस आज्ञा-भंगकारी, विपरीतगामी को (अर्चिषा) जलते अग्निमय शस्त्र से (मर्मन् विध्य) मर्मस्थान पर वेध, ताड़ित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
गोपीड़क को दण्ड
पदार्थ
[१] हे (नृचक्षः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाले प्रजापालक राजन् ! (यातुधानः) = गौ को पीड़ित करके उसके दूध को छीननेवाला यातुधान (उस्त्रियायाः) = गौ का जो (संवत्सरीणं पयः) = वर्षभर में मिलनेवाला दूध है (तस्य मा आशीत्) = उसका भोजन न करे। उस यातुधान को वर्षभर गौ का दूध पीने को न मिले। वह गौ की सेवा करे, पर उसे गौ के दूध से वञ्चित रखा जाये । क्रूरता से दुग्धहरण का यही समुचित दण्ड है । [२] (यतमः) = जो भी यातुधान (अग्ने) = हे राजन् ! (पीयूषम्) = अभिनव पय को शुरू-शुरू में स्तनों से बाहर आनेवाले दूध को जो वस्तुतः बछड़े का भाग है, उस दूध को (तृप्सात्) = अपनी तृप्ति का साधन बनाने की इच्छा करता है (तम्) = उस (प्रत्यञ्चम्) = प्रतिकूल मार्ग पर चलनेवाले व्यक्ति को (अर्चिषा) = ज्ञान ज्वाला से (मर्मन्) = मर्मस्थल में (विध्य) = तू विद्ध करनेवाला बन । उसे तू इस प्रकार के शब्दों में समझाने का प्रयत्न कर कि 'बच्चे भूखे बैठे हों और मात-पिता मजे से खा रहे हों, तो क्या यह दृश्य माता-पिता की मानवता का सूचक है ! इसी प्रकार गौ का बछड़ा तरसता रह जाये और तुम गौ के अधस् से एक-एक बूंद दूध को निकालने का प्रयत्न करो तो यह कहाँ तक ठीक है ? इस प्रकार उसे ज्ञान दिया जाए कि यह उसके हृदय में घर कर जाये । उसे अपना अपराध मर्मविद्ध करने लगे। I
भावार्थ
भावार्थ- पीड़ा देकर गोदुग्ध हरण करनेवाले को वर्षभर दूध न मिल सकने का दण्ड दिया जाये ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नृचक्षः-अग्ने) हे नराणां कर्मद्रष्टः नायक ! (यातुधानः) यातनाधारको दुष्टो जनः (उस्रियायाः संवत्सरीणं तस्य पयः मा अशीत्) गोः-उस्रा “गोनाम” [निघ० २।११] ततो डियाप्रत्ययश्छान्दसः संवत्सरे भवं पूर्णवर्षान्तं तद् “व्यत्ययेन षष्ठी” दुग्धं न अश्नीयात् न पिबेदिति दण्डं प्रयच्छ (पीयूषं-यतमः-तितृप्सात्) पीयूषेण “विभक्तिव्यत्ययेन द्वितीया” अमृतकल्पेन दुग्धेन स्वात्मानं तर्पयितुमिच्छेद् यः (तं प्रत्यञ्चम्-मर्मन्-अर्चिषा विध्य) तं सर्वप्रत्यक्षं ज्वालास्त्रेण मर्मणि विध्य-ताडय ॥१७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, watchful guardian of humanity, let the oppressor not drink milk of the cow for a year, and if the oppressor drinks of the milk and excessively too, punish him with your flame unto the heart core.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांचे व्यवहार पाहणाऱ्या नायकाने त्रस्त करणाऱ्याला गायीचे दूध वर्षभर पिऊ देऊ नये. जो अमृतरूपी दूध पिऊन फक्त स्वत:ला तृप्त करू इच्छितो, अशा त्रस्त करणाऱ्या लोकांना दुसऱ्यासमोर तीक्ष्ण शस्त्रांनी ताडित करावे. ॥१७॥
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