ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 18
ऋषिः - पायुः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि॒षं गवां॑ यातु॒धाना॑: पिब॒न्त्वा वृ॑श्च्यन्ता॒मदि॑तये दु॒रेवा॑: । परै॑नान्दे॒वः स॑वि॒ता द॑दातु॒ परा॑ भा॒गमोष॑धीनां जयन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । गवा॑म् । या॒तु॒ऽधानाः॑ । पि॒ब॒न्तु॒ । आ । वृ॒श्च्य॒न्ता॒म् । अदि॑तये । दुः॒ऽएवाः॑ । परा॑ । ए॒ना॒न् । दे॒वः । स॒वि॒ता । द॒दा॒तु॒ । परा॑ । भा॒गम् । ओष॑धीनाम् । ज॒य॒न्ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं गवां यातुधाना: पिबन्त्वा वृश्च्यन्तामदितये दुरेवा: । परैनान्देवः सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । गवाम् । यातुऽधानाः । पिबन्तु । आ । वृश्च्यन्ताम् । अदितये । दुःऽएवाः । परा । एनान् । देवः । सविता । ददातु । परा । भागम् । ओषधीनाम् । जयन्ताम् ॥ १०.८७.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 18
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यातुधानाः) यातनाधारक (गवां विषं पिबन्तु) गौ आदियों के दूध को न पीवे, किन्तु मूत्र को पीवे (अदितये दुरेवाः) माता बहिन के प्रति दुराचारवाले (परैः-वृश्च्यन्ताम्) पर प्रहारकों द्वारा छिन्न-भिन्न किये जावें (देवः-सविता-एनान् परा ददातु) राजा इनको दण्डदाताओं के लिये सोंप दे (ओषधीनां भागं परा जयन्तु) औषधियों के भाग को प्राप्त हों, अन्य नहीं ॥१८॥
भावार्थ
यातना देनेवाले को गौ का दूध न दिया जावे, केवल अन्न मिले, प्रहारकों से दण्ड मिले ॥१८॥
विषय
दुष्टों गोमूत्रादि पान का दण्ड। उनको अन्धेरी कोठड़ी का दण्ड।
भावार्थ
(यातु-धानाः) प्रजाओं को पीड़ा देने वाले, दुष्ट, अपराधी लोग (गवां विषं) गौओं का जल, मूत्र आदि (पिबन्तु) पान करें। और (अदितये दुरेवाः) अदिति, माता पिता, पुत्र आदि के प्रति बुरा व्यवहार करने वाले जन, (परा वृश्च्यन्ताम्) बहुत बुरी तरह से काटे जांय, पीड़ित किये जांय। (सविता देवः) प्रकाशमान सूर्य वा सूर्य का प्रकाश (एनान् परा ददातु) इन से परे रहे। उनको ऐसी अन्धेरी कोठड़ी में रखा जावे कि सूर्य का प्रकाश इन्हें न मिले। और वे (औषधीनां भागं परा जयन्तु) ओषधियों का सेवनीय अंश भी प्राप्त न करें। वे रोगपीड़ित होकर कष्ट भोगें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
विष नकि दूध
पदार्थ
[१] (यातुधानाः) = गत मन्त्र में वर्णित पीड़ित करके गौवों के दूध को निकालनेवाले यातुधान लोग (गवाम्) = गौवों के (विषम्) = विष को (पिबन्तु) = पीयें । वस्तुतः जब गौवों को पीड़ित किया जाता है तो उनके दूध आदि में विष की उत्पत्ति हो ही जाती है। सो इस विषैले दूध को पीनेवाले लोग, दूध क्या पीते हैं, विष को ही पीते हैं। (अदितये) = अदिति शरीर के अखण्डन व स्वास्थ्य के लिये दूध आदि का अतिमात्र प्रयोग करनेवाले ये यातुधान (दुरेवा:) = गलत मार्ग पर चलते हुए (आवृश्च्यन्ताम्) = छिन्न स्वास्थ्यवाले किये जायें। इन्होंने अपने गलत कर्मों के कारण दूध न पीकर विष ही पिया है । [२] (सविता देवः) = वह प्रेरक देव (एनान्) = इन लोगों को (पराददातु) = स्वास्थ्यभंग आदि अनुभवों को प्राप्त कराके इन अपकर्मों से पृथक् करे। ये लोग दूध के साथ (ओषधीनां भागम्) = ओषधियों के सेवनीय अंश को (पराजयन्ताम्) = [ लभन्ताम् ] प्राप्त करनेवाले हों। 'पयः पशूनाम्, रसमोषधीनाम्' इस मन्त्र भाग के अनुसार दूध व ओषधिरस दोनों का ही प्रयोग हितकर है । इस अवस्था में दूध को अनुचित प्रकार से प्राप्त करने की आवश्यकता भी न रहेगी।
भावार्थ
भावार्थ- गौ को पीड़ित करके प्राप्त किया गया दूध विषमय हो जाता है । उसका प्रयोग ठीक नहीं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यातुधानाः) यातनाधारकाः (गवां विषं पिबन्तु) गवादीनां दुग्धं तु न पिबन्तु किन्तु मूत्रं पिबन्तु “विषमुदकनाम” [निघ० १।२] (अदितये दुरेवाः) मात्रे स्वस्रे दुराचाराः (परैः-वृश्च्यन्ताम्) परैश्छिद्यन्तां (देवाः सविता-एनान् परा ददातु) सविता प्रजापतिः-प्रजापालको राजा “प्रजापतिर्वै सविता” [गो० १६।५।१७] एतान् दण्डदातृभ्यः समर्पयतु (ओषधीनां भागं परा जयन्तु) ओषधीनां भागं प्राप्नुवन्तु नान्यत् ॥१८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the oppressors of the cows, earth and the environment drink poison instead of milk. Let the oppressors of Aditi, mother, sister and nature suffer in isolation. O Savita, saviour soul of renewal and replenishment, throw them off to ruin and let them be denied their share of herbs and trees. (Those who oppress the creative and productive powers of natural sustenance of life and pollute the sources of energy themselves deny the sustenance because that is the law of Agni in nature and life).
मराठी (1)
भावार्थ
यातना देणाऱ्याला गायीचे दूध देता कामा नये. केवळ अन्न मिळावे. प्रहारकांकडून दंड मिळावा. ॥१८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal