ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 12
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सु॒कृत्सु॑पा॒णिः स्ववाँ॑ ऋ॒तावा॑ दे॒वस्त्वष्टाव॑से॒ तानि॑ नो धात्। पू॒ष॒ण्वन्त॑ ऋभवो मादयध्वमू॒र्ध्वग्रा॑वाणो अध्व॒रम॑तष्ट॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽकृत् । सु॒ऽपा॒णिः । स्वऽवा॑न् । ऋ॒तऽवा॑ । दे॒वः । त्वष्टा॑ । अव॑से । तानि॑ । नः॒ । धा॒त् । पू॒ष॒ण्ऽवन्तः॑ । ऋ॒भ॒वः॒ । मा॒द॒य॒ध्व॒म् । ऊ॒र्ध्वऽग्रा॑वाणः । अ॒ध्व॒रम् । अ॒त॒ष्ट॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकृत्सुपाणिः स्ववाँ ऋतावा देवस्त्वष्टावसे तानि नो धात्। पूषण्वन्त ऋभवो मादयध्वमूर्ध्वग्रावाणो अध्वरमतष्ट॥
स्वर रहित पद पाठसुऽकृत्। सुऽपाणिः। स्वऽवान्। ऋतऽवा। देवः। त्वष्टा। अवसे। तानि। नः। धात्। पूषण्ऽवन्तः। ऋभवः। मादयध्वम्। ऊर्ध्वऽग्रावाणः। अध्वरम्। अतष्ट॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिष्यविषयमाह।
अन्वयः
हे पूषण्वन्त ऋभवो यूयं यथा सुकृत् सुपाणिः स्ववानृतावा त्वष्टा देवो नोऽवसे तानि धादूर्ध्वग्रावाण इवाऽध्वरमतष्ट तथाऽस्मान् मादयध्वम् ॥१२॥
पदार्थः
(सुकृत्) यः शोभनं धर्म्यं कर्म करोति (सुपाणिः) शोभनौ पाणी हस्तौ यस्य सः (स्ववान्) बहवः स्वे विद्यन्ते यस्य सः (ऋतावा) सत्यप्रकाशकः (देवः) विद्वान् (त्वष्टा) प्रकाशकः (अवसे) रक्षणाद्याय (तानि) (नः) अस्मभ्यम् (धात्) दधातु (पूषण्वन्तः) बहवः पूषणो विद्यन्ते येषान्ते (ऋभवः) मेधाविनः (मादयध्वम्) आनन्दयत (ऊर्ध्वग्रावाणः) मेघाः (अध्वरम्) पालकं व्यवहारम् (अतष्ट) तनूकुरुत ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा धार्मिका विद्वांसो मेघा इव सर्वानानन्दयन्ति तथैव सर्वे विदुषा आनन्दयन्तु ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिष्य के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (पूषण्वन्तः) बहुत पुष्टिकर्त्ता विद्यमान हैं जिनके वे (ऋभवः) बुद्धिमान् आप लोग जैसे (सुकृत्) सुन्दर धर्म युक्त कर्मकर्त्ता (सुपाणिः) सुन्दर हस्तयुक्त (स्ववान्) बहुत आत्मजन है जिसके वह (ऋतावा) सत्य का प्रकाश करनेवाला (त्वष्टा) प्रकाशकर्त्ता (देवः) विद्वान् (नः) हम लोगों को (अवसे) रक्षण आदि के लिये (तानि) उन अपेक्षित पदार्थों को (धात्) धारण करे और (ग्रावाणः) मेघों के सदृश (अध्वरम्) पालन करनेवाले व्यवहार को (अतष्ट) सूक्ष्म करता है, वैसे ही हम लोगों के लिये (मादयध्वम्) आनन्द दीजिये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे धार्मिक विद्वान् लोग मेघों के सदृश सबको आनन्द देते हैं, वैसे ही सब लोग विद्वानों को आनन्द देवें ॥१२॥
विषय
यज्ञमय जीवन
पदार्थ
[१] (सुकृत्) = सब शोभन कर्मों को करनेवाला, (सुपाणि:) = सब शुभों को हाथ में लिये हुए, (स्ववान्) = सब धनोंवाला, (ऋतावा) = ऋत का रक्षण करनेवाला, (देव:) = प्रकाशमय (त्वष्टा) = सब लोकों का निर्माता प्रभु अवसे रक्षण के लिए (तानि) = उन वेदज्ञानों को (नः) = हमारे लिए (धात्) = धारण करता है। इन ज्ञानों को प्राप्त करके हम भी शोभन कर्मों को करनेवाले [सुकृत्] कल्याणमय हाथोंवाले [सुपाणि] धन-सम्पन्न [स्ववान्] ऋत का पालन करनेवाले [ऋतावा] प्रकाशमय [देव] व निर्माण करनेवाले [त्वष्टा] बनेंगे। [२] हे (पूषण्वन्तः) = उस पोषक प्रभु को अपनानेवाले (ऋभवः) = अत्यन्त देदीप्यमान लोगो! (मादयध्वम्) = तुम हर्ष का अनुभव करो। प्रभुप्राप्ति में ही तुम्हें आनन्द का अनुभव हो । (ऊर्ध्वग्रावाणः) = उत्कृष्ट मार्ग पर चलनेवाले स्तोता बनकर (अध्वरम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को अतष्ट तुम करनेवाले होओ। तुम्हारे से यज्ञों का ही तक्षण (निर्माण) हो । यज्ञों से ही तो तुम प्रभु का पूजन करोगे 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु से दिये गये ज्ञान को सुनते हुए हम यज्ञमय जीवनवाले बनें ।
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(सुकृत्) उत्तम कार्य करने वाला और कर्मों को उत्तम रीति से करने वाला, (सुपाणिः) उत्तम हस्त वाला, सिद्धहस्त उत्तम पूजनीय व्यवहार और स्तुति वचनों वाला, (स्ववान्) धनैश्वर्य से युक्त और आत्मसामर्थ्य से युक्त, आत्मवान् जितेन्द्रिय (देवः) तेजस्वी, दाता (त्वष्टा) सूर्य, विद्युत् के समान प्रकाशक होकर पुरुष (नः) हमारे (अवसे) ज्ञान, रक्षा और तृप्ति के लिये (तानि) वे नाना प्रकार के पदार्थ (धात्) धारण करावे। हे (ऋभवः) ऋत सत्य वा धनैश्वर्य से प्रकाशित और सामर्थ्ययुक्त होने वाले, अति तेजस्वी विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (पूषण्वन्तः) पूषा, पृथिवी, वा नाना पोषक पदार्थों के पालक नायकों से युक्त होकर (मादयध्वम्) हमें प्रसन्न करो। (ऊर्ध्व-ग्रावाणः) उपदेष्टा पुरुष को सब से ऊंचा रखने वाले और ग्रावा अर्थात् क्षत्रिय को अपने ऊपर नायक वा अध्यक्ष नियत करने वाले प्रजाजन ही (अध्वरम्) अपने में हिंसारहित, शान्तिमय व्यवस्थित समाज को (अतष्ट) बनावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे धार्मिक विद्वान लोक मेघांप्रमाणे सर्वांना आनंद देतात तसेच सर्व लोकांनी विद्वानांना आनंद द्यावा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the brilliant Tvashta, divine creator and maker of forms and institutions, noble of action and generous of hands, self-possessed of light and wealth, and keeper and observer of the laws of truth and science of yajna, bring us all those gifts of prosperity and well being for our protection and advancement. Rejoice ye Rbhus, experts of yajna, and yajakas rich with food and fragrance for nourishment. The clouds on high, the mighty mountains and the soma stones are up and ready, the yajna is organised, conducted and accomplished.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the disciples are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wiseman ! you have many supporters make us joyful as a man who does good deeds, is dexterous-handed, has many good kith and kin, and is manifester or propagator of truth and illuminator of knowledge. You are a highly learned person, and therefore uphold for us all those things which are necessary for our preservation and protection. Undertake for our protection those dealings which nourish us like the clouds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As righteous and highly learned persons bestow happiness upon all, so it is the duty of all to make the enlightened men joyful.
Foot Notes
(ऊर्ध्व ग्रावाणः ) मेघाः । ग्रावा इति मेघनाम (N.G. 1,10) = Clouds. (अध्वरम् ) पालकव्यवहारम् । ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (NKT 1, 7) अहिंसक: पालको व्यवहारः । A nourishing non-violent dealing. (त्वष्टा ) प्रकाशकः । त्वष्टा तूर्णम् अश्नुते इति नैरुक्त्ताः । त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः ( NKT 8,2,14,) अत्र दीप्त्यर्थंग्रहणं कृतं भाष्यकारेण ।= Illuminator.
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