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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क॒विर्नृ॒चक्षा॑ अ॒भि षी॑मचष्ट ऋ॒तस्य॒ योना॒ विघृ॑ते॒ मद॑न्ती। नाना॑ चक्राते॒ सद॑नं॒ यथा॒ वेः स॑मा॒नेन॒ क्रतु॑ना संविदा॒ने॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒विः । नृ॒ऽचक्षा॑ । अ॒भि । सी॒म् । अ॒च॒ष्ट॒ । ऋ॒तस्य॑ । योना॑ । विघृ॑ते॒ इति॒ विऽघृ॑ते । मद॑न्ती॒ इति॑ । नाना॑ । च॒क्रा॒ते॒ इति॑ । सद॑नम् । यथा॑ । वेः । स॒मा॒नेन॑ । क्रतु॑ना । स॒व्ँम्वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कविर्नृचक्षा अभि षीमचष्ट ऋतस्य योना विघृते मदन्ती। नाना चक्राते सदनं यथा वेः समानेन क्रतुना संविदाने॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कविः। नृऽचक्षा। अभि। सीम्। अचष्ट। ऋतस्य। योना। विघृते इति विऽघृते। मदन्ती इति। नाना। चक्राते इति। सदनम्। यथा। वेः। समानेन। क्रतुना। संविदाने इति सम्ऽविदाने॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ईश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषौ यथा कविर्नृचक्षाः परमेश्वर ऋतस्य योना विघृते नाना सदनं चक्राते मदन्ती वेः समानेन क्रतुना संविदाने स्त्रियाविव वर्त्तमाने द्यावापृथिव्यौ सीमभ्यचष्ट तं सर्व उपासीरन् ॥६॥

    पदार्थः

    (कविः) सर्वज्ञः (नृचक्षाः) नृणां द्रष्टा (अभि) (सीम्) सर्वतः (अचष्ट) प्रकाशितवान् (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (योना) योनौ गृहे (विघृते) विशेषेण प्रकाशिते (मदन्ती) आनन्दन्त्यौ (नाना) अनेकविधम् (चक्राते) कुरुतः (सदनम्) स्थानम् (यथा) (वेः) पक्षिणः (समानेन) तुल्येन (क्रतुना) कर्मणा (संविदाने) कृतप्रतिज्ञ इव ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येन परमेश्वरेणाऽनेकविधाः प्रकाशाऽप्रकाशयुक्ता लोका निर्मिताः स एव सर्वज्ञः सर्वद्रष्टा परमात्मा सततमुपासनीयः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे स्त्री और पुरुष ! (यथा) जैसे (कविः) संपूर्ण विषयों के जानने (नृचक्षाः) मनुष्यों के देखनेवाले परमेश्वर (ऋतस्य) सत्य कारण के (योना) गृह में (विघृते) विशेष करके प्रकाशित में (नाना) अनेक प्रकार के (सदनम्) स्थान को (चक्राते) करते हैं (मदन्ती) आनन्द करती हुईं (वेः) पक्षी के (समानेन) तुल्य (क्रतुना) कर्म से (संविदाने) की है प्रतिज्ञा जिन्होंने उन स्त्रियों के सदृश वर्त्तमान अन्तरिक्ष और पृथिवी को (सीम्) सब ओर (अभि, अचष्ट) प्रकाशित किया, उसकी सब लोग उपासना करें ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने अनेक प्रकार के प्रकाश और अप्रकाश से युक्त लोक रचे, वही सबको जानने और सबको देखनेवाला परमात्मा निरन्तर उपासना करने योग्य है ॥६

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    विषय

    शरीर व मस्तिष्क का संज्ञान

    पदार्थ

    [१] (कविः) = तत्त्वज्ञान को प्राप्त करनेवाला क्रान्तदर्शी (नृचक्षा:) = सब मनुष्यों को देखनेवाला, सबका ध्यान करनेवाला, केवल अपने हित को न देखनेवाला, (सीम्) = निश्चय से (ऋतस्य योना) = ऋत की योनि में, ऋत के स्थान में, एकदम नियमित [right] आचरण में (विधृते) = विशेषरूप से धारण किये गये, (मदन्ती) = हर्ष से युक्त द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (अभि अचष्ट) = सर्वतः देखता है। कवि व नृचक्षा बनकर हम ऋत का पालन करेंगे तो हमारे मस्तिष्क व शरीर दोनों ही सम्यक् पोषित होते हुए हमारे आनन्द का कारण बनेंगे। [२] (समानेन क्रतुना) = [सम्यक् आनयति-प्राणयति] सम्यक् प्राणित करनेवाले कर्म से (सं विदाने) = परस्पर ऐकमत्य को प्राप्त हुए हुए ये (नाना) = अलग-अलग होते हुए भी शरीर और मस्तिष्क (वेः) = इस गतिशील भिन्न-भिन्न योनियों में जानेवाले जीव के (यथा) = जैसे चाहिये उस प्रकार (सदनं चक्राते) = गृह को, स्थिति स्थानभूत शरीर को (चक्राते) = बनाते हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। ये दोनों परस्पर पूरक हैं। शरीर मस्तिष्क का व मस्तिष्क शरीर का पूरण करता है। ये द्यावापृथिवी के समान एक दूसरे को पूरक होते हैं। जब ये एक-दूसरे का पूरण करते हैं, तभी जीव का यह उचित घर बनता है। ऐसे ही घर में यह उत्तम कर्मों को करता हुआ उन्नत हो पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- शरीर व मस्तिष्क परस्पर एक दूसरे का पूरण करते हुए हमारे लिये उचित निवास स्थान बनते हैं।

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    विषय

    सूर्य भूमिवत् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (ऋतस्य योनौ) जलके आश्रयस्थान महान् आकाश में स्थित (नृचक्षाः) सबका द्रष्टा सूर्य (विघृते) विशेष रूप से प्रकाशमान्, विविध रूप से जलों को धारण करने वाली, (मदन्ती) उससे तृप्त करने वाले आकाश और पृथिवी दोनों को (अभि अचष्ट सीम्) सब प्रकार से प्रकाशित करता है (वेः सदनं यथा नाना चक्राते) पक्षी के घोंसले के समान वे दोनों गतिशील व्यापक सूर्य के गृहके समान गमन-स्थान बना रहे हैं और (समानेन क्रतुना) एक जैसे कर्म, वृष्टि, जलदानादि प्रजापालन आदि कार्य से (संविदाने) परस्पर एक दूसरे के साथ मिले रहते हैं उसी प्रकार (ऋतस्य योनौ) परम सत्कार के आश्रय में विद्यमान (विघृते) विशेष या विभिन्न २ प्रकार से ज्ञान और भौतिक तेज से प्रकाशित होने वाले (मदन्ती) एक दूसरे से या को सुख से तृप्त करते हुए जीव और प्रकृति को (कविः) क्रान्तदर्शी (नृचक्षाः) सब जीवों का द्रष्टा परमेश्वर (सीम्) सब प्रकार से (अभिचष्ट) साक्षात् देखता है। वे दोनों ही (वेः) गतिशील व्यापक आत्मा के और (समानेन क्रतुना) समान कर्म और ज्ञान से (संविदाने) मिल कर (नाना सदनं) नाना प्रकार के स्थान समान (चक्राते) बनाते हैं। (२) इसी प्रकार सत्य व्यवहार और ऐश्वर्य से सम्पन्न एक गृह में रहते हुए विशेष तेज से युक्त, हृष्ट, प्रसन्न होते हुए स्त्री-पुरुष जो दोनों आदरपूर्वक समान कर्म और ज्ञान से परस्पर मिल कर रहते हुए (वेः) विद्वान् पुरुष के लिये अपने को नाना प्रकार से आश्रय बनावें। और उनको वह क्रान्तदर्शी विद्वान् सब मनुष्यों का उपदेष्टा और दृष्टा होकर सब प्रकार से उपदेश दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराने अनेक प्रकारचे प्रकाश व अप्रकाशयुक्त गोल निर्माण केलेले आहेत, तोच सर्वांना जाणणारा व पाहणारा परमात्मा निरंतर उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The one omniscient poet creator watching the entire world of humanity comprehends, illuminates and oversees the two worlds of heaven and earth, both rejoicing in accord yet sustained apart by one law of existence, in the cosmic womb of nature’s divinity, making one but various home as the birds’ on the same one tree.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men and women ! you should all worship or have communion with that One God, who is Omniscient, beholder of all men and illuminator of the heaven and earth. In fact, these are produced from the true eternal cause-Matter, and gives joy by producing various objects like the diversified nest (shelter) of a birth. They are like two women who have taken similar pledges or suitable actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! that One Omniscient and All-beholder God should be worshipped by all who have made many luminous and other worlds.

    Foot Notes

    (अचष्ट) प्रकाशितवान् । = Has illuminated. (विद्युते) विशेषेण प्रकाशिते | = Illumined particularly. (संविदाने) कृतप्रतिज्ञ इव । = Who have made pledges. (वे:) पक्षिण: = Of the bird.

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