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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सना॑ पुरा॒णमध्ये॑म्या॒रान्म॒हः पि॒तुर्ज॑नि॒तुर्जा॒मि तन्नः॑। दे॒वासो॒ यत्र॑ पनि॒तार॒ एवै॑रु॒रौ प॒थि व्यु॑ते त॒स्थुर॒न्तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सना॑ । पु॒रा॒णम् । अधि॑ । ए॒मि॒ । आ॒रात् । म॒हः । पि॒तुः । ज॒नि॒तुः । जा॒मि । तत् । नः॒ । दे॒वासः॑ । यत्र॑ । प॒नि॒तारः॑ । एवैः॑ । उ॒रौ । प॒थि । विऽउ॑ते । त॒स्थुः । अ॒न्तरिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सना पुराणमध्येम्यारान्महः पितुर्जनितुर्जामि तन्नः। देवासो यत्र पनितार एवैरुरौ पथि व्युते तस्थुरन्तः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सना। पुराणम्। अधि। एमि। आरात्। महः। पितुः। जनितुः। जामि। तत्। नः। देवासः। यत्र। पनितारः। एवैः। उरौ। पथि। विऽउते। तस्थुः। अन्तरिति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ईश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यत्र पनितारो देवास एवैरुरौ व्युते पथि अन्तस्तस्थुस्तत्पितुर्जनितुर्महो जामि आरादनुविदितं भवतु तन्न आरात्सना पुराणमध्येमि तस्यान्तो भवन्तोऽपि सन्ति ॥९॥

    पदार्थः

    (सना) सनातनम् (पुराणम्) पुरानवम् (अधि) (एमि) सर्वतः स्मरामि (आरात्) दूरात्समीपाद्वा (महः) महतः पूजनीयस्य (पितुः) पालकस्य (जनितुः) जनकस्य (जामि) जातम् (तत्) (नः) अस्मानस्माकं वा (देवासः) विद्वांसः (यत्र) (पनितारः) व्यवहर्त्तारः स्तावकाः (एवैः) प्रापकैः (उरौ) महति (पथि) मार्गे (व्युते) विगतावर्णे प्रसिद्धे (तस्थुः) तिष्ठन्ति (अन्तः) मध्ये ॥९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यत्र सर्वं जगत्तिष्ठति येन प्रोक्तेन मार्गेण गच्छन्ति तत्सर्वस्य पालकं जनितृ सर्वेभ्यो महदनादिभूतं ब्रह्मोपासनीयं यदि तज्जानीयात्तर्हि समीपस्थं, न जानीयाच्चेदतिदूरस्थं भवति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्र) जिसमें (पनितारः) व्यवहार करने अर्थात् स्तुति करनेवाले (देवासः) विद्वान् लोग (एवैः) प्राप्त करनेवालों से (उरौ) बड़े (व्युते) आवरण अर्थात् दूसरे करके ढाँपने से रहित इस प्रकार प्रसिद्ध (पथि) मार्ग में (अन्तः) मध्य में (तस्थुः) वर्त्तमान हैं (तत्) वह (पितुः) पालन करने और (जनितुः) उत्पन्न करनेवाले (महः) श्रेष्ठ पूजा करने योग्य से (जामि) उत्पन्न हुआ (आरात्) दूर वा समीप से जाना जाय और वह (नः) हम लोगों के दूर वा समीप से (सना) प्राचीन काल से सिद्ध और (पुराणम्) प्रथम नवीन को (अधि, एमि) स्मरण करता हूँ, उसके मध्य में आप लोग भी हैं ॥९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसमें सम्पूर्ण संसार स्थित है और जिसकी कही हुई मर्य्यादा से चलते हैं, वह सबका पालक उत्पन्न करनेवाला सब पदार्थों से बड़ा अनादि से सिद्ध ब्रह्म उपासना करने योग्य है, जो उसको जाने तो समीप में वर्त्तमान और न जाने तो अत्यन्त दूर वर्त्तमान होता है ॥९॥

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    विषय

    कर्मों द्वारा प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार द्यावापृथिवी में उस प्रभु की महिमा को देखता हुआ मैं (सना) = उस सनातन (पुराणम्) = पुराण पुरुष परमात्मा को (आशत्) = समीप ही अपने हृदय देश में (अध्येमि) = स्मरण करता हूँ। उस (महः) = महान् (पितुः) = हम सबके रक्षक (जनितुः) = उत्पादक परमात्मा का (तत्) = वह (नः) = हमारा (आमि) = बन्धुत्व है। उसके हम पुत्र हैं- रक्षणीय हैं, वह हमारा पिता व रक्षक है । [२] (देवास:) = देववृत्ति के लोग (यत्र) = जहाँ (एवैः) = गतियों द्वारा कर्मों द्वारा (पनितारः) = प्रभु का स्तवन करनेवाले होते हैं, वहाँ वे (उरौ) = विशाल (व्युते) = [वि उते] कर्म-तन्तुओं से व्याप्त (पथि अन्तः) = मार्ग में ही (तस्थुः) = स्थित होते हैं । वस्तुतः प्रभु का उपासन कर्मों से ही होता है, उन कर्मों से जो कि विशाल हृदय से किये जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को पिता व जनिता के रूप में हम स्मरण करें। विशाल हृदय से कर्म करते हुए हम उसका उपासन करें।

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    विषय

    पवित्र दाम्यत्य।

    भावार्थ

    (यत्र) जिसमें (पनितारः) व्यवहार स्तुति और उपदेश करने वाले। (देवासः) ज्ञानदाता विद्वान् जन वा कामनाशील पुरुष भी (एवैः) अपने ज्ञानों सहित (उरौ) बड़े भारी (व्युते पथि) निरावरण, खुले, विस्तृत वा विविध तन्तु सन्तानों से बने हुए मार्ग में रहकर (अन्तः तस्थुः) भीतर गृह में अतिथिवत् विराजते हैं। मैं उस (सना) सनातन, (पुराणम्) अति प्राचीन (नः) अपने (तत्) उस परम (महः) महान् पूजनीय, (पितुः जनितुः जामि) पालक और उत्पादक माता पिताओं के परस्पर सम्बन्ध को (अधि एमि) सदा याद रक्खूं। प्रत्येक विवाहित स्त्री, पुरुष अपने माता पिताओं के स्थिर दाम्पत्य भाव के उस पवित्र सम्बन्ध को स्मरण रक्खा करें जिससे सभी कामनावान् वा विद्वान् जन बड़े संसार मार्ग पर चलते हुए भी उस ज्येष्ठ गृहस्थाश्रम के भीतर वा ऊपर आश्रित होकर गृह के समान रहते हैं। उस आश्रम की महत्ता को जान कर स्त्री पुरुष स्थायी रूप से दाम्पत्य निभावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्यात संपूर्ण जग स्थित आहे व ज्याच्या मर्यादेत सर्व वागतात तो सर्वांचा पालक, निर्माता, सर्व पदार्थात मोठा अनादिकालापासून सिद्ध ब्रह्म उपासना करण्यायोग्य आहे. जो त्याला जाणतो तो समीप असतो व जाणत नाही तो अत्यंत दूर असतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I study the ancient and eternal, yet ever new, heaven and earth, twin creation of our great father creator, just like our brother and sister, wherein brilliant forces of nature, celebrants of the Divine creator, with their powers and attributes abide and operate in the wide open paths of space in existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know the great and famous path in which are established the devout enlightened persons of good dealings because of the virtues, leading to God, Let this world created by its Adorable Father and Sustainer (God, the Supreme Being) should also be known from far and near. I always keep uppermost in my mind that God is Eternal and Ever new (un-changing). You should also be within Him i. e. should realize His presence within yourselves.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should adore and have communion with that God in which the world dwells. The enlightened persons tread upon the path directed by Him (through the Vedas). He is the creator and sustainer of the world, the greatest and External. If one knows, him, He appears to Him quite near, if one does not know Him, He appears to be far off.

    Foot Notes

    (सना) = सनातनम् । Eternal (अधि एमि) सर्वतः स्मरामि = Remember from all sides and at all times. (पनितारः) व्यवहर्त्तारः स्तावकाः = Devotees of good dealings. (व्युते) विगतावर्णे प्रसिद्धे – Famous. (जामि) जातम् । = Born.

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