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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 21
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सदा॑ सु॒गः पि॑तु॒माँ अ॑स्तु॒ पन्था॒ मध्वा॑ देवा॒ ओष॑धीः॒ संपि॑पृक्त। भगो॑ मे अग्ने स॒ख्ये न मृ॑ध्या॒ उद्रा॒यो अ॑श्यां॒ सद॑नं पुरु॒क्षोः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सदा॑ । सु॒ऽगः । पि॒तु॒ऽमान् । अ॒स्तु॒ । पन्था॑ । मध्वा॑ । दे॒वाः॒ । ओष॑धीः । सम् । पि॒पृ॒क्त॒ । भगः॑ । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒ख्ये । न । मृ॒ध्याः॑ । उत् । रा॒यः । अ॒श्या॒म् । सद॑नम् । पु॒रु॒ऽक्षोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदा सुगः पितुमाँ अस्तु पन्था मध्वा देवा ओषधीः संपिपृक्त। भगो मे अग्ने सख्ये न मृध्या उद्रायो अश्यां सदनं पुरुक्षोः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सदा। सुऽगः। पितुऽमान्। अस्तु। पन्था। मध्वा। देवाः। ओषधीः। सम्। पिपृक्त। भगः। मे। अग्ने। सख्ये। न। मृध्याः। उत्। रायः। अश्याम्। सदनम्। पुरुऽक्षोः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 21
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे देवा विद्वांसो यूयं मध्वोषधीः सम्पिपृक्त येनाऽस्माकं सुगः पितुमान् पन्थाः सदास्तु। हे अग्ने मे सख्ये त्वं न मृध्या मे भगो तेऽस्तु यथाऽहं पुरुक्षोः सदनं रायश्चोदश्यां तथा भवानप्येतत्प्राप्नोतु ॥२१॥

    पदार्थः

    (सदा) सर्वदा (सुगः) सुखेन गच्छन्ति यस्मिन् (पितुमान्) बहूनि पितवोऽन्नादीनि विद्यन्ते यस्मिन् (अस्तु) (पन्थाः) मार्गः (मध्वा) मधुरादिगुणयुक्ताः (देवाः) विद्वांसः (ओषधीः) सोमलताद्याः (सम्) (पिपृक्त) सम्यक्प्राप्नुतः (भगः) ऐश्वर्य्यम् (मे) मम (अग्ने) विद्वन् (सख्ये) सख्युर्भावे कर्मणि वा (न) (मृध्याः) हिंस्याः (उत्) (रायः) धनानि (अश्याम्) प्राप्नुयाम् (सदनम्) गृहम् (पुरुक्षोः) बह्वन्नस्य ॥२१॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो वैद्या भूत्वा सदोषधीभी रोगान्निवार्य्य सर्वानरोगान् कुर्य्युस्सदैव मैत्रीं भावयित्वा राज्ञा निष्कण्टका निर्भयाः सरलाः पन्थानो निर्मातव्याः येषु गत्वाऽऽगत्य प्रजाः पुष्कलधना भवेयुः ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (देवाः) विद्वानो ! आप लोग (मध्वा) मधुर आदि गुणों से युक्त (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (सम्) (पिपृक्त) उत्तम प्रकार प्राप्त हों जिससे हम लोगों का (सुगः) सुखपूर्वक चलते हैं जिसमें और (पितुमान्) बहुत अन्न आदि विद्यमान हैं जिसमें ऐसा (पन्थाः) मार्ग सदा सबकाल में (अस्तु) हो और हे (अग्ने) विद्वन् ! (मे) मेरे (सख्ये) मित्र के भाव अर्थात् मित्रपन वा कर्म में आप (न) नहीं (मृध्याः) नाश करो मेरा (भगः) ऐश्वर्य्य आपका हो और जैसे मैं (पुरुक्षो) बहुत अन्नवाले के (सदनम्) गृह और (रायः) धनों को (उत्, अश्याम्) प्राप्त होऊँ, वैसे आप भी इन गृह धनादि वस्तुओं को प्राप्त होइये ॥२१॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् लोग वैद्य होकर सर्वदा ओषधियों से रोगों का निवारण करके सबको रोगरहित करें और सदैव मित्रता करके राजा को चाहिये कि दुष्ट डाकू रूप कण्टकों से तथा भय से रहित सरल मार्ग बनावें कि जिन मार्गों में जाकर तथा आकर प्रजायें बहुत धनवाली होवें ॥२१॥

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    विषय

    सात्त्विक भोजन तथा उत्कृष्ट समृद्ध जीवन

    पदार्थ

    [१] हे परमात्मन् ! (सदा) = हमेशा हमारा (पन्थाः) = मार्ग (सुगः) = शोभनगमनवाला, निष्पाप व (पितुमान्) = प्रशस्त अन्नवाला (अस्तु) = हो । [२] हे (देवा:) = सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथिवी, वायु आदि देवो! (ओषधीः) = ओषधियों को (मध्वा) = मधु से अत्यन्त माधुर्य से (संपिपृक्त) = संपृक्त करो। हमारे सब अन्न अत्यन्त माधुर्य से युक्त हों। प्रस्तुत मन्त्रभाग का अर्थ यह भी है कि हे (देवा:) = देववृत्तिवाले पुरुषो! तुम (ओषधीः) = ओषधियों को (मध्वा) = मधु से (संपिपृक्त) -=जोड़ दो, अर्थात् ओषधियों [= वनस्पतियों] व शहद का ही सेवन करनेवाले बनो। [३] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सख्ये) = आपकी मित्रता में (मे) = मेरा (भगः) = ऐश्वर्य (न मृध्या:) = हिंसित न हो। मैं (रायः) = धन के तथा (पुरुक्षोः) = पालक व पूरक अन्न के (सदनम्) = गृह को (उत् अश्याम्) = उत्कर्षेण प्राप्त होऊँ, अर्थात् मुझे धनों की (व) = अन्नों की कमी न हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए उत्कृष्ट मार्ग से चलें। भोजन में ओषधियों व मधु का प्रयोग करें। हमें धन व अन्न की कमी न हो।

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    विषय

    उत्तम अन्न जलों के उपभोग का उपदेश।

    भावार्थ

    राष्ट्र में हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (पन्थाः) मार्ग (सदा) सदा (सुगः) सुखपूर्वक जाने योग्य और (पितुमान्) अन्न जल आदि प्राणपालक पदार्थों से युक्त (अस्तु) हो। अथवा (पितुमान् पुरुषः सदा सुगः पन्था इव अस्तु) अन्न का स्वामी, अन्नदाता पुरुष सदा सुखपूर्वक सबसे प्राप्त होने योग्य मार्ग के समान होना चाहिये। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (मध्वा) अन्न, जल और मधु के साथ (ओषधीः) ओषधियों को (संपिपृक्त) मिलाकर उपयोग करो अथवा (मध्वा सह ओषधीरिव यूयं संपिपृक्त) अन्न, जल वा शहद के साथ ओषधियां जिस प्रकार मिलकर अधिक गुणकारी होती हैं उसी प्रकार आप लोग भी मधुर वचनों सहित प्रजाजनों के साथ सम्पर्क करो। (मे भगः) मेरा ऐश्वर्य हो। हे (अग्ने) विद्वन् ! हे नायक ! (मे सख्ये) मेरे साथ मित्रता करने पर तू (न मृध्याः) मुझे नष्ट मत कर। स्वयं बहुत भी नष्ट न हो। मैं प्रजाजन (पुरुक्षोः) अन्न के स्वामी तेरे (रायः) ऐश्वर्यों और (सदनं) गृह या शरण को (उत् अश्याम्) उत्तम रीति से प्राप्त करूं और उपभोग करूं। अथवा हे अग्रणी नायक ! तेरी (सख्ये) मित्रता में (मे भगो न मृध्याः) मेरा ऐश्वर्य नष्ट न हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी वैद्य बनून सदैव औषधींनी रोगांचे निवारण करून सर्वांना रोगरहित करावे व सदैव मैत्री करून राजाने दुष्ट डाकूरूपी कंटकापासून भयरहित मार्ग तयार करावा. त्या मार्गाने जाऊन प्रजेने धन कमवावे. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the path be straight and clear, full of wealth and prosperity. O brilliant and generous powers of nature, fill the herbs with honey to the full. Agni, brilliant and generous power, may honour and prosperity forsake me never, nor my friends, during our friendship that is abiding. And may I be blest with wealth and a house of plenty and generosity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The virtues of enlightened are explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! may our path be easy for going and abounding in good food. Make proper use of the sweet and invigorating herbs and plants like the Soma. O leader! do not suffer under my friendship. Let my wealth be yours. Let it be gladly shared by you. May I occupy a dwelling, abounding with riches and ample food.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of good physicians to make all men healthy by preventing from their diseases with the help of good medicines. The kings should cultivate friendship with all and should build roads which are smooth, clean and straight, so that the people may travel upon them and earn wealth.

    Foot Notes

    (पितुमान्)बहूनि पितविन्नादिनि विद्यन्ते यस्मिन। पितुरिति अन्ननाम (NG 2,7)। =' Which has various kinds of food stuff. (पुरुक्षोः) वद्वन्नादियुक्तस्य । पुरु इति बहुनाम (NG. 3, 1 ) क्षु इति अन्नाम (NG. 2, 7)। = Of a person having ample food.

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