ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
महि॑ म॒हे दि॒वे अ॑र्चा पृथि॒व्यै कामो॑ म इ॒च्छञ्च॑रति प्रजा॒नन्। ययो॑र्ह॒ स्तोमे॑ वि॒दथे॑षु दे॒वाः स॑प॒र्यवो॑ मा॒दय॑न्ते॒ सचा॒योः॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । म॒हे । दि॒वे । अ॒र्च॒ । पृ॒थि॒व्यै । कामः॑ । मे॒ । इ॒च्छन् । च॒र॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । ययोः॑ । ह॒ । स्तोमे॑ । वि॒दथे॑षु । दे॒वाः । स॒प॒र्यवः॑ । मा॒दय॑न्ते । सचा॑ । आ॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि महे दिवे अर्चा पृथिव्यै कामो म इच्छञ्चरति प्रजानन्। ययोर्ह स्तोमे विदथेषु देवाः सपर्यवो मादयन्ते सचायोः॥
स्वर रहित पद पाठमहि। महे। दिवे। अर्च। पृथिव्यै। कामः। मे। इच्छन्। चरति। प्रऽजानन्। ययोः। ह। स्तोमे। विदथेषु। देवाः। सपर्यवः। मादयन्ते। सचा। आयोः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यो युद्धविद्यां प्रजानन् विजयन् राज्यमिच्छन्महे दिवे पृथिव्यै चरति तं यो मे महि कामोऽस्ति तमलङ्कर्त्तुमिच्छन् विजयते तमर्च। ययोः स्तोमे विदथेषु सपर्यवो देवा हाऽऽयोः सचा मादयन्ते तौ युवां तानानन्दयेतम् ॥२॥
पदार्थः
(महि) महान् (महे) महते (दिवे) प्रकाशमानाय (अर्च) सत्कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पृथिव्यै) भूमिराज्यप्राप्तये (कामः) अभिलाषा (मे) मम (इच्छन्) (चरति) गच्छति (प्रजानन्) विदन् सन् (ययोः) विद्याराज्ययोः (ह) (स्तोमे) प्रशंसिते विजये (विदथेषु) सङ्ग्रामेषु (देवाः) विद्वांसः (सपर्यवः) सेवकाः (मादयन्ते) हर्षयन्ति (सचा) सम्बन्धेन (आयोः) जीवस्य ॥२॥
भावार्थः
ये विद्याराज्यवृद्धिकामा दीर्घायुषो युद्धविद्याकुशला राजामात्याञ्छ्रीविजयाभ्यां सत्कुर्य्युस्तान् राजाऽमात्या अपि सदैव सुखयन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो युद्धविद्या को (प्रजानन्) जानता और विजय करता और राज्य की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ (महे) बड़े (दिवे) प्रकाशमान के और (पृथिव्यै) भूमि के राज्य की प्राप्ति के लिये (चरति) चलता है उसको जो (मे) मेरी (महि) बड़ी (कामः) अभिलाषा है उसको शोभित करने की इच्छा करता हुआ विजय को प्राप्त होता है, उसका (अर्च) सत्कार करो और (ययोः) जिन विद्या और राज्य के (स्तोमे) प्रशंसा करने योग्य विजय और (विदथेषु) संग्रामों में (सपर्य्यवः) सेवक (देवाः) विद्वान् लोग (ह) निश्चय (आयोः) जीव के (सचा) सम्बन्ध से (मादयन्ते) प्रसन्न करते हैं, वे दोनों आप उन लोगों को आनन्द दीजिये ॥२॥
भावार्थ
जो विद्या और राज्य की वृद्धि की कामना करने और अधिक अवस्थावाले युद्धविद्या में निपुण जन, राजा और मन्त्रियों का लक्ष्मी और विजय से सत्कार करें, उन जनों को राजा और मन्त्री भी सदा ही सुखित करें ॥२॥
विषय
द्यावापृथिवी का अर्चन
पदार्थ
[१] हे स्तोतः ! तू (प्रजानन्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला होता हुआ (महे दिवे) = इस महान् द्युलोक के लिए तथा (पृथिव्यै) = पृथिवी के लिए (महि अर्च) = अत्यन्त ही अर्चना करनेवाला हो। शरीर में द्युलोक मस्तिष्क है। मस्तिष्क की अर्चना यही है कि हम अत्यन्त स्वाध्यायशील बनें। 'पृथिवी' यह स्थूल शरीर है। इसकी अर्चना यही है कि उचित आहार-विहार द्वारा इसकी शक्ति को स्थिर रखा जाए। (मे काम:) = मेरी अभिलाषा (इच्छन्) = द्युलोक व पृथिवी को (इच्छन्) = चाहती हुई चरति गतिवाली होती है। मैं मस्तिष्क व शरीर दोनों की उन्नति चाहता हूँ, और उसके लिये गतिवाला होता हूँ, अर्थात् पुरुषार्थ करता हूँ। [२] (आयो:) = मनुष्य के (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (ह) = निश्चय से (ययोः स्तोमे) = जिन द्यावापृथिवी का स्तवन होने पर (सपर्यवः देवा:) = उसका पूजन करनेवाले देव (सचा मादयन्ते) = उसके साथ आनन्द का अनुभव करते हैं। जब मनुष्य समझदार होता हुआ मस्तिष्क व शरीर का ध्यान करता है- इन दोनों के विकास के लिए यत्नशील होता है, तो सब उत्तम गुण उसके अन्दर पनपते हैं। यही देवों द्वारा इस मनुष्य का पूजन है।
भावार्थ
भावार्थ- हम शरीर व मस्तिष्क के विकास के लिए इच्छापूर्वक यत्नशील हों। इससे हम सब दिव्यगुणों के अधिष्ठान बन पाएँगे।
विषय
उत्तम शासक की प्रशंसा और आदर।
भावार्थ
(ययोः) जिन के (स्तोमे) स्तुति योग्य शासन में (विदथेषु) ज्ञानों और संग्रामों के निमित्त (सपर्यवः देवाः) सेवाकुशल विद्या और धन के अभिलाषी लोग (आयोः सचा) जीवन भर के सम्बन्ध से (मादयन्ते) प्रसन्न रहते हैं हे विद्वन् ! तू (प्रजानन्) ज्ञानवान् होकर उन (महे दिवे) बड़े तेजस्वी सूर्य और (महे पृथिव्यै) पूजनीय पृथिवी के समान तेजस्वी और सर्वाश्रय राजा रानी दोनों का (महि अर्च) बड़ा आदर सत्कार कर। उन दोनों में से (मे कामः) मुझ प्रजाकी अभिलाषा करने हारा (इच्छन्) राजा मुझे चाहता हुआ (चरति) विचरता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्या व राज्याच्या वृद्धीची कामना करणाऱ्या, दीर्घायुषी, युद्धविद्येत कुशल लोकांनी विजय प्राप्त करवून देऊन राजा व मंत्री यांचा सत्कार करावा. राजा व मंत्री यांनीही त्या लोकांना सदैव सुखी ठेवावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Offer ecstatic songs of celebration in honour of high heaven and vast earth. Knowing these, and desiring fulfilment, man goes forward for the light of heaven and dominion over the earth. Surely in the songs of heaven and earth, the divine powers of nature and the best of humanity join together and rejoice in the yajnic battles of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the kings are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Honor the person who knows the art of warfare and conquers his enemies, desires kingdom and travels here and there for the acquirement of great light and the kingdom of earth. Such a person tries to fulfil (lit. adorn) my desires and achieves victory. The enlightened men serving the noble cause get great delight on-the nice accomplishments of knowledge and kingdom adopting moral values. You should gladden them all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king and his ministers should make happy those persons, who desire to spread knowledge and progress of the State. They are long lived and experts in the science of warfare, adorn the king and ministers with prosperity and victory.
Foot Notes
(पुथिव्यै ) भूमिराज्यप्राप्तये। = The obtaining kingdom of the earth. (सपर्यंव:) सेवकाः । आयव इति मनुय्यमाम । (NG 2,3) = Attendants. (आयोः) जीवस्य । आयुः इति अन्न नाम (N. G. 2, 7) अत्र अन्नवतः प्राणिनो ग्रहणम् = Of the soul.
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