ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 18
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒र्य॒मा णो॒ अदि॑तिर्य॒ज्ञिया॒सोऽद॑ब्धानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑। यु॒योत॑ नो अनप॒त्यानि॒ गन्तोः॑ प्र॒जावा॑न्नः पशु॒माँ अ॑स्तु गा॒तुः॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्य॒मा । नः॒ । अदि॑तिः । य॒ज्ञिया॑सः । अद॑ब्धानि । वरु॑णस्य । व्र॒तानि॑ । यु॒योत॑ । नः॒ । अ॒न॒प॒त्यानि॑ । गन्तोः॑ । प्र॒जाऽवा॑न् । नः॒ । प॒शु॒ऽमान् । अ॒स्तु॒ । गा॒तुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्यमा णो अदितिर्यज्ञियासोऽदब्धानि वरुणस्य व्रतानि। युयोत नो अनपत्यानि गन्तोः प्रजावान्नः पशुमाँ अस्तु गातुः॥
स्वर रहित पद पाठअर्यमा। नः। अदितिः। यज्ञियासः। अदब्धानि। वरुणस्य। व्रतानि। युयोत। नः। अनपत्यानि। गन्तोः। प्रजाऽवान्। नः। पशुऽमान्। अस्तु। गातुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 18
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसोऽदितिरिवार्य्यमा यज्ञियासो यूयं नो वरुणस्याऽदब्धानि व्रतानि युयोत। नो गन्तोरनपत्यानि युयोत येन नो गातुः प्रजावान् पशुमानस्तु ॥१८॥
पदार्थः
(अर्य्यमा) न्यायाधीशः (नः) अस्माकम् (अदितिः) मातेव (यज्ञियासः) अहिंसायज्ञस्याऽनुष्ठातारः (अदब्धानि) अहिंसितानि (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि (युयोत) प्रापयत त्याजयत (नः) अस्माकम् (अनपत्यानि) अविद्यमानान्यपत्यानि येषु तानि (गन्तोः) गन्तव्यानि (प्रजावान्) सन्तानवान् (नः) अस्मान् (पशुमान्) बहुपशुयुक्तः (अस्तु) (गातुः) भूमिः। गातुरिति पृथिवीना० निघं० १। १। ॥१८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो भवन्तोऽस्मान्न्यायाधीशवन्मातृवदन्यायाचरणात्पृथक्कृत्य सत्यानि धर्म्याणि कर्माणि प्रापय्य भूगोलं बहुप्रजासमसंख्यधनं कुरुत ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (अदितिः) माता के सदृश (अर्य्यमा) न्यायाधीश (यज्ञियासः) जिसमें हिंसा न हो ऐसे यज्ञ के करनेवाले आप लोगो ! (नः) हम लोगों के (वरुणस्य) श्रेष्ठ के (अदब्धानि) हिंसाभिन्न (व्रतानि) सत्य बोलने आदि व्रतों को (युयोत) प्राप्त कराइये (नः) हम लोगों के (गन्तोः) प्राप्त होने योग्य व्यवहार से (अनपत्यानि) नहीं विद्यमान हैं सन्तान जिनमें उनको प्राप्त कराइये जिससे (नः) हम लोगों की (गातुः) पृथिवी (प्रजावान्) सन्तानयुक्त और (पशुमान्) बहुत पशुयुक्त (अस्तु) हो ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! आप लोग हम लोगों को न्यायाधीश और माता के सदृश अन्यायाचरण से अलग करके और सत्य धर्मयुक्त कर्मों को प्राप्त कराके सम्पूर्ण पृथिवी को बहुत प्रजा और असंख्य धनयुक्त करो ॥१८॥
विषय
एक सद्गृहस्थ
पदार्थ
[१] [क] (अर्यमा) = [ऋ गतौ, अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति] वह गतिशील सर्वदाता प्रभु (नः) = हमारा हो। हम प्रभुप्रवण बनें। प्रकृति की ओर न झुक जाएँ। [ख] (अदितिः) = वह अदीना देवमाता [न:] हमारी हो अथवा (अदिति:) = [अखण्डन] पूर्ण स्वास्थ्य हमारा हो । प्रभुप्रवण होते हुए हम पूर्ण स्वस्थ बनें। [ग] (यज्ञियास:) = सब यज्ञिय पवित्र भावनाएँ हमारी हों। प्रभुप्रवण व स्वस्थ बनकर हम पवित्र भावनाओंवाले हों। [घ] (वरुणस्य) = उस पाप निवारक प्रभु के (व्रतानि) = पुण्यकर्म (अदब्धानि) = हमारे में हिंसित न हों। प्रभु ने जिन पवित्र कर्मों का निर्देश किया है, हम उनका पालन करनेवाले बनें। [२] (नः) = हमारे (गन्तो:) = मार्ग से (अनपत्यानि) = सन्तानराहित्य की स्थितियों को (युयाते) = पृथक् करिए। हम सद्गृहस्थ बनकर उत्तम सन्तानवाले हों । (नः) = हमारा (गातुः) = गृह व जीवनमार्ग (प्रजावान्) = उत्तम प्रजाओंवाला तथा (पशुमान्) = गौ आदि उत्तम पशुओंवाला हो। हमारे घर में उत्तम गौ आदि पशु हों। उनके दुग्ध आदि पदार्थों से सन्तानों का उत्तम निर्माण हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सद्गृहस्थ होकर हम प्रभुप्रवण-वृत्तिवाले हों, स्वस्थ हों, पवित्र भावनाओं को अपनाएँ और प्रभु निर्दिष्ट व्रतों का हिंसन न करें।
विषय
व्यवस्थापक न्यायाध्यक्ष के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! आप लोग (यज्ञियासः) यज्ञ करने वाले, परस्पर दान, मैत्री, पूजादि करने वाले होओ और (नः) हमारा (अर्यमा) सूर्य के समान तेजस्वी शत्रु को वश करने वाला, न्यायाधीश वा राजा (अदितिः) अखण्ड शासक वा माता पिता के तुल्य हो। (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ पुरुष के (व्रतानि) कर्म, नियम भी (अदब्धानि) हिंसित न हों। आप सब लोग (नः) हमारे (गन्तोः) गमन करने योग्य मार्ग से (अनपत्यानि) हमारे सन्तानों के अयोग्य पापादि कर्मों को (युयोत) दूर करो। (नः) हमारा (गातुः) भूमि और गृह (प्रजावान्) प्रजाओं से युक्त और (पशुमान् अस्तु) पशुओं से समृद्ध होवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! तुम्ही आम्हाला न्यायाधीशाप्रमाणे व मातेप्रमाणे अन्यायाचरणापासून दूर करून सत्य धर्म कर्म प्राप्त करवून संपूर्ण पृथ्वीला प्रजा व धन यांनी युक्त करा. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Aryama, lord of justice, Aditi, unimpaired fertility of Mother Nature, and sages dedicated to yajna protect and promote our vows of the discipline of Varuna, lord of rectitude, intact and unviolated. O Spirit of Divinity, ward off the causes of childlessness and sterility from our path of life so that our course of home life may be blest with progeny and cattle wealth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the kings are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! like a mother and a judge, you perform Yajnas, enable us to observe the vows of noble men, without any impediment. Keep off us the path which deprives us of having good progeny. May the land we dwell upon, have plenty of progeny and cattle.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons ! like mothers and dispensers of justice, keep us away from all unjust conduct, enable us to perform truthful and righteous acts and make the land for us full of good progeny and infinite wealth.
Foot Notes
(यज्ञियासः) अहिंसायज्ञस्यानुष्ठातारः = Performers of non- violent sacrifice. (अदब्धानि ) अहिसितानि = Inviolable. अदिति: अदीना देवमातेति (NKT 4,423) अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः (ऋ० । 89, 10 ) इति प्रामाण्याददिवेमतित्यर्थः स्पष्टः । (गातुः ) भूमिः । गातुरिति पृथिवी नाम (NG 1, 1) = Land, earth. (अदिति:) माता: = Mother.
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