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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नास॑त्या मे पि॒तरा॑ बन्धु॒पृच्छा॑ सजा॒त्य॑म॒श्विनो॒श्चारु॒ नाम॑। यु॒वं हि स्थो र॑यि॒दौ नो॑ रयी॒णां दा॒त्रं र॑क्षेथे॒ अक॑वै॒रद॑ब्धा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नास॑त्या । मे॒ । पि॒तरा॑ । ब॒न्धु॒ऽपृच्छा॑ । स॒ऽजा॒त्य॑म् । अ॒श्विनोः॑ । चारु॑ । नाम॑ । यु॒वम् । हि । स्थः । र॒यि॒ऽदौ । नः॒ । र॒यी॒णाम् । दा॒त्रम् । र॒क्षे॒थे॒ इति॑ । अक॑वैः । अद॑ब्धा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नासत्या मे पितरा बन्धुपृच्छा सजात्यमश्विनोश्चारु नाम। युवं हि स्थो रयिदौ नो रयीणां दात्रं रक्षेथे अकवैरदब्धा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नासत्या। मे। पितरा। बन्धुऽपृच्छा। सऽजात्यम्। अश्विनोः। चारु। नाम। युवम्। हि। स्थः। रयिऽदौ। नः। रयीणाम्। दात्रम्। रक्षेथे इति। अकवैः। अदब्धा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 16
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सभासेनेशौ युवं हि नो रयिदौ रयीणां दात्रं रक्षेथे अकवैरदब्धा स्थो ययोरश्विनोरिव चारु नामास्ति तौ बन्धुपृच्छा नासत्या मे पितरेव सजात्यं चारु नाम रक्षतम् ॥१६॥

    पदार्थः

    (नासत्या) न विद्यतेऽसत्यं ययोस्तौ (मे) मम (पितरा) पालकौ (बन्धुपृच्छा) यौ बन्धून् पृच्छतस्तौ (सजात्यम्) समानजातौ भवम् (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरिव (चारु) सुन्दरम् (नाम) (युवम्) (हि) यतः (स्थः) भवथः (रयिदौ) श्रीप्रदौ (नः) अस्माकम् (रयीणाम्) धनानाम् (दात्रम्) दानम् (रक्षेथे) (अकवैः) अकुत्सितैः कर्मभिः (अदब्धा) अहिंसितौ ॥१६॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो मातापितृवत्सर्वेभ्यो विद्याधनप्रदा धर्माचारिणः सन्तः सजात्यानन्याँश्च रक्षन्ति ते सर्वेषां पूज्या भवन्ति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे सभा और सेना के स्वामी ! (युवम्) आप दोनों (हि) जिससे कि (नः) हम लोगों के लिये (रयिदौ) लक्ष्मी देनेवाले (रयीणाम्) धनों के (दात्रम्) दान की (रक्षेथे) रक्षा करते हैं (अकवैः) कुत्सित भिन्न अर्थात् उत्तम कर्मों से (अदब्धा) नहीं हिंसित हुए (स्थः) होते हैं और जिनकी (अश्विनोः) सूर्य चन्द्रमा के तुल्य (चारु) सुन्दर (नाम) संज्ञा है उन (बन्धुपृच्छा) बन्धुओं का कुशलादि पूछनेवाले (नासत्या) असत्य के त्यागी (मे) मेरे (पितरा) पालन करनेवालों के सदृश (सजात्यम्) समान जातिवाले सुन्दर नाम की रक्षा करो ॥१६॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् लोग माता और पिता के सदृश सबके लिये विद्या और धन देनेवाले धर्मपूर्वक आचरण करते हुए अपने समान जातिवाले तथा अन्य जनों की रक्षा करते हैं, वे सबके पूजा करने योग्य होते हैं ॥१६॥

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    विषय

    प्राणापान का महत्व

    पदार्थ

    [१] (नासत्या) = [नासायां भवौ] नासिका में गतिवाले ये प्राणापान (मे पितरा) = मेरे रक्षक हैं। (बन्धुपृच्छा) = एक बन्धु की तरह मेरे कुशल को पूछने [ask] वाले हैं। (अश्विनो:) = इन प्राणापान का (सजात्यम्) = समानरूप से विकसित होना चारु नाम सचमुच सुन्दर है ['नाम'='निश्चय से' की भावना दे रहा है] 'प्राण और अपान दोनों समानरूप से प्रादुर्भाव [जनी प्रादुर्भावे] वाले हों' यह वास्तव में बहुत ही सुन्दर होता है । 'प्राण' शक्ति का संचार करता है, तो 'अपान' दोषों को दूर करता है। [२] (युवम्) = तुम दोनों (नः) = हमारे लिए (हि) = निश्चय से (रयीणां रयिदौ) = उत्कृष्ट धनों के देनेवाले हो । वस्तुतः ये ही शरीर में 'सोम' [वीर्य] के रक्षण के साधन बनते हैं और उस सोमरक्षण द्वारा शरीर को स्वस्थ, मन को निर्मल व बुद्धि को तीव्र बनाते हैं। (अदब्धा) = अहिंसित हुए-हुए ये प्राणापान (अकवैः) = अकुत्सित कर्मों द्वारा (दात्रम्) = वासनाओं को विदारण करनेवाले [दाप् लवने] मुझको (रक्षेथे) = रक्षित करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान हमारे रक्षक हैं- बन्धुवत् हितकर हैं। हमें उत्कृष्ट ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (मे) मुझ प्रजाजन के (पितरौ) पिता के समान राजा और सेनापति और में वर और वधू, पति और पत्नी अपनी प्रजा का पालन करने वाले हों, वे दोनों (नासत्या) कभी असत्याचरण न करने वाले और मुख पर नाक के समान राष्ट्र में अग्रगण्य पद पर विराजमान हों और (बन्धु पृच्छा) सब मनुष्यों को बन्धु के तुल्य जान कर उनके सुख दुःख पूछने वाले हों। वे दोनों (अश्विनोः) सूर्य चन्द्र वा दिन और रात्रि दोनों के (चारु नाम) उत्तम स्वरूप के तुल्य (सजात्य) जाति के अनुरूप ही नाम, रूप धारण करते हुए (युवं) तुम दोनों (नः) हमें (रयिदौ स्थः) ऐश्वर्य के देने वाले रहो। तुम दोनों (अकवैः) अकुत्सित उत्तम कर्मों से (अदब्धा) कभी पीड़ित न होते हुए (रयीणां दात्रं) ऐश्वर्यो के दान कर्म की (रक्षेथे) रक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान लोक माता-पिता यांच्याप्रमाणे सर्वांना विद्या व धन देतात, धर्मपूर्वक आचरण करतात व इतर लोकांचे रक्षण करतात, ते सर्वांचे पूजनीय असतात. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, imperishable complementarities of nature and humanity such as heaven and earth, sun and moon, heat and cold, father and mother, working in cooperation, together as in a circuit of energy, are my sustainers like parents and care givers like brothers and sisters. Their kinship itself by birth and nature is worthy and venerable.$Ashvins, you always abide strong and stable as givers of our wealth, honour and fame and, intrepidable as you are, you protect and promote the gift and the giver by acts and means which are not selfish nor ungenerous but which are liberal and philanthropic.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of the enlightened persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O the President of the Council of Ministers and the Chief Commander of the army! you are absolutely truthful. You give wealth, and protect me. You look to the care and welfare of your kith and kin, irresistible by your irreproachable noble actions, and safeguard our donations. Like the sun and the moon, your name is beautiful. Like parents, you protect the honor and fame of that beautiful name which are of the similar nature and function.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those enlightened persons who protect all like the parents, who give knowledge and wealth to all, and who being of righteous conduct protect their kith and kin and others, become worthy of veneration by all.

    Foot Notes

    (अश्विनो ) सूर्याचन्द्रमसोरिव । = Like the sun and the moon. (अकर्वः) अकुत्सितैः कर्मभिः । = By irreproachable or unblameable noble action तत्कावश्विनौ । द्यावापृथिव्यावित्येके । अहोरात्रा वित्येके, सूर्याचन्द्रमसावित्येके (NKT 12, 1, 1) अत्र सूर्याचन्द्रमसौ इति पक्षमादाय व्याख्यातं भाध्यकृता । = Ashvinau (अश्विनो ) is the common name for the President of the Council of Minister and the Chief Commander of the Army.

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