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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॒ विश्वै॑र्वी॒र्यैः॒३॒॑ पत्य॑मान उ॒भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा। पु॒रं॒द॒रो वृ॑त्र॒हा धृ॒ष्णुषे॑णः सं॒गृभ्या॑ न॒ आ भ॑रा॒ भूरि॑ प॒श्वः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । विश्वैः॑ । वी॒र्यैः॑ । पत्य॑मानः । उ॒भे इति॑ । आ । प॒प्रौ॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । पु॒र॒म्ऽद॒रः । वृ॒त्र॒ऽहा । धृ॒ष्णुऽसे॑णः । स॒म्ऽगृभ्य॑ । नः॒ । आ । भ॒र॒ । भूरि॑ । प॒श्वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो विश्वैर्वीर्यैः३ पत्यमान उभे आ पप्रौ रोदसी महित्वा। पुरंदरो वृत्रहा धृष्णुषेणः संगृभ्या न आ भरा भूरि पश्वः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। विश्वैः। वीर्यैः। पत्यमानः। उभे इति। आ। पप्रौ। रोदसी इति। महिऽत्वा। पुरम्ऽदरः। वृत्रऽहा। धृष्णुऽसेणः। सम्ऽगृभ्य। नः। आ। भर। भूरि। पश्वः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् यो वृत्रहेव पुरन्दरः पत्यमानो धृष्णुसेन इन्द्रो भवान् विश्वैर्वीर्यैर्महित्वोभे रोदसी आ पप्रौ स त्वं भूरि नोऽस्मान् पश्वश्च सङ्गृभ्या भर ॥१५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (विश्वैः) अखिलैः (वीर्यैः) पराक्रमैः (पत्यमानः) पतिः स्वामीवाचरन् (उभे) (आ) (पप्रौ) व्याप्नोति (रोदसी) न्यायभूमिराज्ये (महित्वा) महिम्ना (पुरन्दरः) शत्रूणां नगराणां हन्ता (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्येव (धृष्णुसेनः) धुष्णुः प्रगल्भा दृढा सेना यस्य सः (सङ्गृभ्य) सम्यग् गृहीत्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (आ) (भर) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (भूरि) बहु (पश्वः) पशून् ॥१५॥

    भावार्थः

    यथा भूमिसूर्यौ सर्वान् धृत्वा संपोष्य वर्द्धयतस्तथैव राजादयोऽध्यक्षाः सर्वाञ्छुभगुणान् धृत्वा प्रजां पोषयित्वा सेनामुन्नीय शत्रून् हत्वा प्रजामुन्नयन्तु ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे राजन् ! जो (वृत्रहा) मेघ को नाश करनेवाले सूर्य के सदृश (पुरन्दरः) शत्रुओं के नगरों का नाश करनेवाला (पत्यमानः) स्वामी के सदृश आचरण करता हुआ (धृष्णुसेनः) दृढ़ सेना और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त राजा आप (विश्वैः) सम्पूर्ण (वीर्यैः) पराक्रमों से (महित्वा) महिमा से (उभे) दोनों (रोदसी) न्याय और भूमि के राज्य को (आ, पप्रौ) व्याप्त करते हैं वह आप (भूरि) बहुत (नः) हम लोगों और (पश्वः) पशुओं को (संगृभ्य) उत्तम प्रकार ग्रहण करके (आ, भरे) सब प्रकार पोषण कीजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे भूमि और सूर्य सब पदार्थों को धारण और उत्तम प्रकार पोषण करके बढ़ाते हैं, वैसे ही राजा आदि अध्यक्ष सब उत्तम गुणों को धारण प्रजा का पोषण, सेना की वृद्धि और शत्रुओं का नाश करके प्रजा की वृद्धि करें ॥१५॥

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    विषय

    प्रभुस्मरण व वासनाविनाश

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (विश्वैः) = सब (वीर्यैः) = पराक्रर्मों से (पत्यमानः) = गति करता असुरों हुआ (उभे) = दोनों (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (महित्वा) = अपनी महिमा से (आ पप्रौ) = पूरित व व्याप्त करनेवाला है। सर्वत्र द्यावापृथिवी में प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है । [२] वे प्रभु (पुरन्दरः) = की पुरियों का विदारण करनेवाले हैं- हमारे जीवन में आ जानेवाले काम-क्रोध-लोभ को प्रभु ही विनष्ट करते हैं। इन्द्रियों में कामासुर, मन में क्रोधासुर, बुद्धि में लोभासुर अपना-अपना दुर्ग बनाता है। प्रभु इन्हें विनष्ट कर डालते हैं । (वृत्रहा) = वे प्रभु हमारी वासना को [वृत्र ज्ञान पर आवरणभूत] नष्ट करते हैं। (धृष्णुषेण:) = प्रभु की सेना शत्रुओं का धर्षण करनेवाली है। प्रभु महादेव हैं, देव ही उनके सैनिक हैं। दिव्य विचारों से वासनारूप शत्रुओं का विनाश होता है। [३] हे प्रभो! आप (न:) = हमें (संगृभ्य) = सम्यक् ग्रहण करके (पश्वः) = इन इन्द्रियाश्वों को (भूरि आभर) = इस प्रकार प्राप्त कराइये कि ये हमारा भरण करनेवाले बनें, न कि विनाश ।

    भावार्थ

    भावार्थ – सर्वत्र द्युलोक व पृथ्वीलोक में हम प्रभु की महिमा को देखें। प्रभु का स्मरण हमारी वासनाओं को विनष्ट करे और इससे हमारे इन्द्रियाश्व हमारे वश में हो ।

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा (विश्वैः वीर्यैः) सब प्रकार के बलों से (पत्यमानः) ऐश्वर्यवान् स्वामी पति के समान होता हुआ (महित्वा) महान् सामर्थ्य से (उभे रोदसी) राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों को (आ पप्रौ) सब प्रकार से पूर्ण करे। वह (पुरंदरः) शत्रुके गण को तोड़ने और अपने पुर को धारने वाला (वृत्रहा) विघ्नकारी दुष्टों का नाशक (धृष्णु षेणः) शत्रु पराजयकारी सेना का स्वामी होकर तू (नः) हमें (संगृभ्य) अच्छी प्रकार संग्रह करके (भूरि पश्वः आभर) बहुत पशु सम्पदा प्रदान कर। इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी भूमी व सूर्य सर्व पदार्थांना धारण करतात व उत्तम प्रकारे पोषण करून वाढवितात तसेच राजा इत्यादी अध्यक्षांनी सर्व गुणांना धारण करून प्रजेचे पोषण, सेनेची वृद्धी व शत्रूंचा नाश करून प्रजेची वाढ करावी. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, sustaining and preserving both heaven and earth with universal vitalities like a father and guardian, pervades and fills both with his divine power. O lord commander of terrible forces, breaker of clouds and destroyer of darkness, shatterer of enemy forts, create and develop a lot of wealth and bless us all with that wealth, power and honour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of kings are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you possess abundant wealth, are like the sun that is the destroyer of the clouds, or destroyer of the cities of the enemies, and are full of all energies. The leader of a conquering strong army, has transformed it into the kingdom of justice on the earth, after having upheld us and the animals. Support us well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the earth uphold, sustain and increase the strength of all, in the same manner, it is the duty of the king and other chiefs to cultivate all noble virtues in order to make the subjects advanced, to strengthen the army, and destroy the foes, and thus to make the people grow in every way.

    Foot Notes

    ( रोदसी) न्याय भूमिराज्ये। = The kingdom of justice and earth. (वृत्रहा ) मेघहन्ता सूर्येव । = Like the sun who destroys the clouds. (धृष्णुसेने:) धूष्णुः प्रगल्मा दृढा सेना यस्य सः ।= He whose army is very strong.

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