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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 24
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्राश्वौ छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    अरं॑ म उ॒स्रया॒म्णेऽर॒मनु॑स्रयाम्णे। ब॒भ्रू यामे॑ष्व॒स्रिधा॑ ॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर॑म् । मे॒ । उ॒स्रऽया॑म्णे । अर॑म् । अनु॑स्रऽयाम्ने । ब॒भ्रू इति॑ । यामे॑षु । अ॒स्रिधा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरं म उस्रयाम्णेऽरमनुस्रयाम्णे। बभ्रू यामेष्वस्रिधा ॥२४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरम्। मे। उस्रऽयाम्ने। अरम्। अनुस्रऽयाम्ने। बभ्रू इति। यामेषु। अस्रिधा ॥२४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 24
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यावस्रिधा बभू्र यामेषूस्रयाम्णे मेऽरमनुस्रयाम्णे मेऽरं भवतस्तौ मया सेवनीयौ ॥२४॥

    पदार्थः

    (अरम्) अलम् (मे) मह्यम् (उस्रयाम्णे) उस्रैः किरणैरिव यानेन याति तस्मै (अरम्) अलम् (अनुस्रयाम्णे) योऽनुस्रं शीतं देशं याति तस्मै (बभ्रू) सत्यधारकौ (यामेषु) प्रहरेषु (अस्रिधा) अहिंसकौ ॥२४॥

    भावार्थः

    यावध्यापकोपदेशकौ शीतोष्णदेशनिवासिनं मामध्यापयितुमुपदेष्टुं च शक्नुतस्तौ सदैव मया सत्कर्त्तव्यौ भवत इति ॥२४॥ अत्रेन्द्रराजप्रजाध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२४॥ इत्यृक्संहितायां तृतीयाष्टके षष्ठोऽध्यायस्त्रिंशो वर्गश्चतुर्थमण्डले द्वात्रिंशत्तमं सूक्तं तृतीयोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (अस्रिधा) नहीं हिंसा करने (बभ्रू) और सत्य की धारणा करनेवाले (यामेषु) प्रहरों में (उस्रयाम्णे) किरणों के समान जो यान से जाता उस (मे) मेरे लिये (अरम्) समर्थ और (अनुस्रयाम्णे) शीत देश को जानेवाले मेरे लिये (अरम्) समर्थ होते हैं, वे मुझसे सेवन योग्य हैं ॥२४॥

    भावार्थ

    जो अध्यापक और उपदेशक शीतोष्ण देश निवासी मुझको पढ़ा और उपदेश दे सकते हैं, वे सदैव मुझ से सत्कार करने योग्य होते हैं ॥२४॥ इस सूक्त में इन्द्र राजा प्रजा अध्यापक और उपदेशक के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२४॥ यह ऋग्वेद संहिता के तीसरे अष्टक में छठा अध्याय तीसवाँ वर्ग तथा चतुर्थ मण्डल में बत्तीसवाँ सूक्त और तीसरा अनुवाक पूरा हुआ ॥

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    विषय

    उस्त्रयामा-अनुस्त्रयामा

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र में वर्णित (बभ्रू) = अत्यन्त हमारा भरण करनेवाले इन्द्रियाश्व (उस्त्रयाम्णे) = [उस्र प्रकाश की किरण ray of light] प्रकाश की किरणों की ओर जानेवाले (मे) = मेरे लिए (अरम्) = पर्याप्त हैं, अर्थात् मुझे ज्ञानप्राप्ति के कार्य में ठीक से सहायक होते हैं। [२] इसी प्रकार (यामेषु) = जीवनयात्रा के मार्गों में (अस्त्रिया) = न हिंसित होनेवाले ये इन्द्रियाश्व (अनुस्त्रयाम्णे) = ज्ञान किरणों से भिन्न यज्ञादि कर्मों की ओर जानेवाले मेरे लिए (अरम्) = पर्याप्त हैं, अर्थात् ये मेरे सब यज्ञादि कर्मों को सिद्ध करनेवाली होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु से बनायी गयी ये ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान- रश्मियों को प्राप्त कराती हैं, तो कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों को सिद्ध करती हैं। सूक्त का सार यही है कि प्रभु की मित्रता में जीवन उत्तम ही उत्तम बनता है। हम मस्तिष्क में ज्ञानदीप्त बनकर 'ऋभु' होते हैं [उरु भाति], मन में विशालतावाले 'विभ्वा' होते हैं तथा शरीर में शक्ति सम्पन्न बनकर 'वाज' होते हैं। अगले सूक्त के ये 'ऋभवः' [ऋभु, विभ्वा व बाज] ही देवता हैं

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    विषय

    दो आंखों के तुल्य सस्नेह रहने का राजा प्रजा वर्गों को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! आपके (बभ्रू) राष्ट्र का भरण पोषण करनेवाले शासक वर्गों की दोनों श्रेणिये सधे अश्वों के समान (यामेषु) गमन योग्य उत्तम मार्गों में (अस्त्रिधा) प्रजा के हिंसक न हों। और वे (उस्त्रयाम्णे) बैलों से जाने वाले या (अनुस्त्रयाम्णे) बिना बैलों से जाने वाले मुझ प्रजाजन का भी (अरम्) बहुत २ सुख देने वाले हो । उसी प्रकार किरणों से युक्त, उससे विरहित शीतोष्ण देश में भी वे (बभ्रू) मेरे पालने वाले हों । इति त्रिंशो वर्गः ॥ इति तृतीयोऽनुवाकः । इति षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १—२२ इन्द्रः । २३, २४ इन्द्राश्वौ देवते ॥ १, ८,९, १०, १४, १६, १८, २२, २३ गायत्री । २, ४, ७ विराङ्गायत्री । ३, ५, ६, १२, १३, १५, १६, २०, २१ निचृद्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री । १७ पादनिचृद्गायत्री । २४ स्वराडार्ची गायत्री ॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शीतोष्ण देशातील निवासी असणारे अध्यापक व उपदेशक मला शिकवून, उपदेश देऊ शकतात त्यांचा माझ्याकडून सदैव सत्कार व्हावा. ॥ २४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the waves of divine energy, instant, constant and never failing, never hurtful, travelling in the day and in the night, to the upper solstice and the nether solstice, be ever blissful to me in the hours of yajnic life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More knowledge about teacher and preacher is imparted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I like those persons who are not violent and hold fast the truth all the time. They move quickly in a craft like the rays and thus make me capable to visit the snowclad and cold spots of their like.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The teacher and preacher who are capable to teach the people living in the cold and hot areas, they are ever worth to be respected by me.

    Foot Notes

    (उस्रयाम्णे ) उस्त्रै: किरणैरिव यानेन याति तस्मै । = The super fast crafts. (अनुस्रयाम्) योऽनुस्त्रं शीतं देशं याति तस्मै । = One who visits the cold spots in the difficult areas. (अस्त्रिधा) अहिंसकौ। = Not non-violate.

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