ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
स न॑श्चि॒त्राभि॑रद्रिवोऽनव॒द्याभि॑रू॒तिभिः॑। अना॑धृष्टाभि॒रा ग॑हि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । चि॒त्राभिः॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । अ॒न॒व॒द्याभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । अना॑धृष्टाभिः । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नश्चित्राभिरद्रिवोऽनवद्याभिरूतिभिः। अनाधृष्टाभिरा गहि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। चित्राभिः। अद्रिऽवः। अनवद्याभिः। ऊतिऽभिः। अनाधृष्टाभिः। आ। गहि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अद्रिवो राजन् ! स त्वं चित्राभिरनवद्याभिरनाधृष्टाभिरूतिभिः सह नोऽस्मानागहि ॥५॥
पदार्थः
(सः) (नः) अस्माकम् (चित्राभिः) अद्भुताभिः (अद्रिवः) अद्रयो मेघा विद्यन्ते सम्बन्धे यस्य सूर्यस्य तद्वद्वर्त्तमान (अनवद्याभिः) प्रशंसनीयाभिः (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (अनाधृष्टाभिः) शत्रुभिर्धर्षितुमयोग्याभिः (आ, गहि) प्राप्नुयाः ॥५॥
भावार्थः
हे प्रजाजना यथा राजा युष्मान् सर्वतो रक्षेत्तथा यूयमपि राजानं सर्वथा रक्षत ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अद्रिवः) मेघों के सम्बन्ध से युक्त सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान राजन् ! (सः) वह आप (चित्राभिः) अद्भुत (अनवद्याभिः) प्रशंसा करने योग्य (अनाधृष्टाभिः) शत्रुओं से दबाने को नहीं योग्य (ऊतिभिः) रक्षादिकों के साथ (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥५॥
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! जैसे राजा आप लोगों की सब प्रकार रक्षा करे, वैसे आप लोग भी राजा की सब प्रकार रक्षा करो ॥५॥
विषय
'चित्र-अनवद्य-अनाधृष्ट-रक्षण'
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = वज्रवन्- क्रियाशीलता रूप वज्रवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमें (ऊतिभिः) = रक्षणों के साथ (आगहि) = प्राप्त होइये । वस्तुतः प्रभु के बिना हम शत्रुओं के आक्रमण से अपना रक्षण किसी भी प्रकार नहीं कर सकते। [२] हे प्रभो! आप उन रक्षणों के साथ हमें प्राप्त होइये, जो कि (चित्राभि:) = [चित् र] हमारे लिए उत्कृष्ट ज्ञानों को देनेवाले हैं। (अनवद्याभि:) = जो रक्षण अत्यन्त प्रशस्त हैं, जिन रक्षणों द्वारा हमारा मन वासनाओं से मलिन नहीं होता। (अनाधृष्टाभिः) = जो रक्षण अनाधृष्ट हैं। इन रक्षणों के होने पर हमारे शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं होते।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के रक्षण हमें मस्तिष्क में ज्ञान-सम्पन्न [चित्र], मन में अनवद्य [= प्रशस्त भावोंवाला] तथा शरीर में अनाधृष्ट [नीरोग] बनाते हैं।
विषय
राजा सेनापति के प्रति प्रजा की नाना प्रार्थनाएं और और आकाक्षाएं । और राजा के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में आचार्य के कर्त्तव्य । राजा से रक्षा, धन, ज्ञान, न्याय आदि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे (अद्रिवः) पर्वतों के तुल्य दानशील और दृढ़ पुरुषों के स्वामिन् ! तू (सः नः) वह (चित्राभिः) अद्भुत, विविध, (अनवद्याभिः) अनिन्दित, (अनाधृष्टाभिः) शत्रुओं से पराजित न होने और धर्षण वा अपमानित न होने योग्य (ऊतिभिः) रक्षाकारिणी सेनाओं, कामनायोग्य विभूतियों और तृप्तिकारक सुखसम्पदाओं और समृद्धिकारक प्रिय प्रजाओं सहित (नः) हमें (आ गहि) प्राप्त हो । इति सप्तविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १—२२ इन्द्रः । २३, २४ इन्द्राश्वौ देवते ॥ १, ८,९, १०, १४, १६, १८, २२, २३ गायत्री । २, ४, ७ विराङ्गायत्री । ३, ५, ६, १२, १३, १५, १६, २०, २१ निचृद्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री । १७ पादनिचृद्गायत्री । २४ स्वराडार्ची गायत्री ॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे प्रजाजनांनो! जसा राजा तुमचे सर्व प्रकारे रक्षण करतो तसे तुम्हीही राजाचे सर्व प्रकारे रक्षण करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Wielder of the thunderbolt of law and justice, come and join us with marvellous, irreproachable, and irresistible modes of defence, protection and promotion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The king and his subjects are again discussed here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ruler! you are like a sun. As the sun thrashes the clouds, you also reach us with your protective faculties because they are always admired and never reprimanded and repressed. We seek you sincerely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O people! as the king protects you in all possible ways, you should also similarly provide him protection.
Foot Notes
(चित्राभिः) अद्भुताभिः। = Peculiar. (अद्रिवः) अद्रयो मेघा विद्यन्ते सम्वन्धे यस्य सूर्यस्य तद्वद्वर्त्तमानः । = The sun which has a particular relation with the clouds and thrashes them. (अनवद्याभि:) प्रशन्सनीयाभिः । = Always admired. (ऊतिभिः) रक्षादिभिः । = By protective faculties. (अनाधृष्टाभिः) शत्रुभिर्धषितुमयोम्याभिः । = Not to be reprehended and repressed by the enemy.
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