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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न त्वा॑ वरन्ते अ॒न्यथा॒ यद्दित्स॑सि स्तु॒तो म॒घम्। स्तो॒तृभ्य॑ इन्द्र गिर्वणः ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । त्वा॒ । व॒र॒न्ते॒ । अ॒न्यथा॑ । यत् । दित्स॑सि । स्तु॒तः । म॒घम् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न त्वा वरन्ते अन्यथा यद्दित्ससि स्तुतो मघम्। स्तोतृभ्य इन्द्र गिर्वणः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। त्वा। वरन्ते। अन्यथा। यत्। दित्ससि। स्तुतः। मघम्। स्तोतृऽभ्यः। इन्द्र। गिर्वणः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्यापकोपदेशकगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे गिर्वण इन्द्र ! यद्यः स्तुतः सँस्त्वं स्तोतृभ्यो मघं दित्ससि तं त्वाऽन्यथा मनुष्या न वरन्ते ॥८॥

    पदार्थः

    (न) (त्वा) त्वाम् (वरन्ते) स्वीकुर्वन्ति (अन्यथा) (यत्) यः (दित्ससि) दातुमिच्छसि (स्तुतः) प्रशंसितः (मघम्) धनम् (स्तोतृभ्यः) विद्वद्भ्यः (इन्द्र) राजन् (गिर्वणः) गीर्भिस्सत्कृत ॥८॥

    भावार्थः

    योऽत्र दाता भवति स एव सर्वेषां प्रियो जायते नैव तस्य कोऽपि विरोधी भवति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अध्यापक और उपदेशक के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) वाणियों से सत्कार को प्राप्त (इन्द्र) राजन् ! (यत्) जो (स्तुतः) प्रशंसा किये गये आप (स्तोतृभ्यः) विद्वानों के लिये (मघम्) धन को (दित्ससि) देने की इच्छा करते हो उन (त्वा) आपको (अन्यथा) अन्य प्रकार से मनुष्य (न) नहीं (वरन्ते) स्वीकार करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो इस संसार में देनेवाला होता है, वही सब का प्रिय होता और कोई भी उसका विरोधी नहीं होता है ॥८॥

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    विषय

    स्तोता के लिए ज्ञानैश्वर्य का प्रापण

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (गिर्वणः) = वेदवाणियों के द्वारा संभजनीय प्रभो ! (यत्) = जब (स्तुतः) = स्तुति किये गये आप (स्तोतृभ्यः) = हम स्तोताओं के लिए (मघम्) = ज्ञानैश्वर्य को (दित्ससि) = देने की कामना करते हैं, तो (त्वा) = आपको (अन्यथा न वरन्ते) = प्रकारान्तर से कोई भी रोक नहीं पाता। प्रभु को संसार की कोई शक्ति रोक नहीं पाती। [२] प्रभु का स्तवन यही है कि हम ज्ञानवाणियों को ग्रहण करने का प्रयत्न करें। सर्वमहान् ऐश्वर्य यही है। जब हम प्रभु का स्मरण करते हैं, तो प्रभु हमें इस ज्ञान को प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं और प्रभु हमारे लिए ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

    राजा सेनापति के प्रति प्रजा की नाना प्रार्थनाएं और और आकाक्षाएं । और राजा के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में आचार्य के कर्त्तव्य । राजा से रक्षा, धन, ज्ञान, न्याय आदि की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे (गिर्वणः) उत्तम वाणियों द्वारा सेवनीय, स्तुत्य, प्रार्थनीय राजन् ! प्रभो ! विद्वन् ! (यत्) क्योंकि तू (स्तुतः) प्रशंसित होकर ही (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वाले विद्वानों को (मघम्) ऐश्वर्य (दित्ससि) प्रदान करता है, इसलिये लोग (त्वा) तुझे (अन्यथा) और किसी प्रयोजन से (न वरन्ते) नहीं वरण करते, वे दान ग्रहणार्थ ही याचना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १—२२ इन्द्रः । २३, २४ इन्द्राश्वौ देवते ॥ १, ८,९, १०, १४, १६, १८, २२, २३ गायत्री । २, ४, ७ विराङ्गायत्री । ३, ५, ६, १२, १३, १५, १६, २०, २१ निचृद्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री । १७ पादनिचृद्गायत्री । २४ स्वराडार्ची गायत्री ॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो या जगात देणारा असतो तोच सर्वांचा प्रिय होतो, कुणीही त्याचा विरोध करीत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The supplicants do not ask of you anything otherwise since, O lord of power and world’s wealth, Indra, praised and celebrated, you liberally grant ample wealth of power and prosperity, honour and excellence to the celebrants and devotees.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a teacher and preacher are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ruler! praised through the speeches, you always show inclination to give wealth to the learned. In that sense, no other can match you and therefore the people do not accept a ruler other than you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    One who gives wealth or knowledge in the world, he is enduring to all. No body is opposed to him.

    Foot Notes

    (वरन्ते ) स्वीकुर्वन्ति । = Accept. (दित्ससि) दातुमिच्छसि । = You always show inclination to give. (स्तोतृभ्यः)विद्वद्भ्यः। = Admires and learned. (गिर्वणः) गीर्भिस्सत्क्रितः। = Praise through speeches.

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