ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 10
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - लिङ्गोक्ताः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ब्राह्म॑णासः॒ पित॑रः॒ सोम्या॑सः शि॒वे नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑ने॒हसा॑। पू॒षा नः॑ पातु दुरि॒तादृ॑तावृधो॒ रक्षा॒ माकि॑र्नो अ॒घशं॑स ईशत ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठब्राह्म॑णासः । पित॑रः । सोम्या॑सः । शि॒वे इति॑ । नः॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒ने॒हसा॑ । पू॒षा । नः॒ । पा॒तु॒ । दुः॒ऽइ॒तात् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धः॒ । रक्ष॑ । माकिः॑ । नः॒ । अ॒घऽशं॑सः । ई॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवी अनेहसा। पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणासः। पितरः। सोम्यासः। शिवे इति। नः। द्यावापृथिवी इति। अनेहसा। पूषा। नः। पातु। दुःऽइतात्। ऋतऽवृधः। रक्ष। माकिः। नः। अघऽशंसः। ईशत ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः परस्परं कथमनुवर्त्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे पितर इव सोम्यासो ब्राह्मणासो विद्वांसो ! यूयं नोऽधर्माचरणात्पृथक् रक्षत यथाऽनेहसा शिवे द्यावापृथिवी नोऽस्मदर्थं स्यातां तथोपदिशत यथा पूषा ऋतावृधो नोऽस्मान् दुरितात् पातु यतोऽघशंसोऽस्मान् माकिरीशत। हे राजँस्त्वमेतान् सततं रक्षा ॥१०॥
पदार्थः
(ब्राह्मणासः) वेदेश्वरवेत्तारः (पितरः) पितर इव प्रजानामुपरि कृपालवः (सोम्यासः) सोमगुणानर्हाः (शिवे) मङ्गलकारिण्यौ (नः) अस्मभ्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (अनेहसा) अहिंसिके (पूषा) विद्याविनयाभ्यां पोषकः (नः) अस्मान् (पातु) (दुरितात्) दुष्टाचरणात् (ऋतावृधः) सत्यवर्धकाः (रक्षा) पालय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (माकिः) निषेधे (नः) अस्मान् (अघशंसः) स्तेनः (ईशत) हन्तुं समर्थो भवेत् ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये विद्वांसो युष्मभ्यं विद्याविनयौ प्रयच्छेरन् विद्युद्भूगर्भादिविद्यया सुखिनः सम्पादयेयुरधर्माचरणात् पृथग्रक्षेयुर्यश्च राजा चोरादिभ्यः सततं रक्षेत् तान्सर्वान् यूयं सततं सेवध्वम् ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पितरः) पिता के समान प्रजाजनों पर कृपा करनेवाले (सोम्यासः) शान्तियुक्त गुणों के योग्य (ब्राह्मणासः) वेद और ईश्वर के जाननेवाले विद्वानो ! तुम (नः) हम लोगों को अधर्म के आचरण से अलग रक्खो जैसे (अनेहसा) न हिंसा करनेवाली (शिवे) मङ्गलकारिणी (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी (नः) हमारे लिये हों, वैसे उपदेश करो जैसे (पूषा) विद्या और विनय से पुष्टिकारक (ऋतावृधः) सत्य का बढ़ानेवाला (नः) हम लोगों की (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (पातु) पालना करे जिससे (अघशंसः) चोर हम लोगों को (माकिः) न (ईशत) मारने के लिये समर्थ हो, हे राजन् ! तुम इन की निरन्तर (रक्ष) रक्षा करो ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो विद्वान् जन तुम लोगों को विद्या और विनय देवें तथा बिजुली और भूगर्भविद्या से सुख से सम्पन्न करें और अधर्माचरण से अलग रक्खें तथा जो राजा चोर आदि दुष्टों से निरन्तर रक्षा करे, उस सब की तुम निरन्तर सेवा करो ॥१०॥
विषय
विद्वान् ब्राह्मण पितरों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( पितरः ) पालन करने वाले, पिता माता के समान आदर करने योग्य (सोम्यासः) ‘सोम’ अर्थात् चन्द्रमा, सोम ओषधि के गुणों के योग्य, वा सोम अर्थात् पुत्र, वा शिष्यों के प्रति हितकारी ( ब्राह्मणासः ) ब्रह्म, वेद के जानने वाले विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (रक्ष) हमारी रक्षा करो और ( ऋत-वृधः ) सत्य, न्याय, ऐश्वर्य की वृद्धि करते हुए ( ईशत ) हम पर शासन करो । ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और पृथिवी दोनों (नः ) हमें (दुरितात् पातु ) पाप, दुष्टाचरण से बचावें और ( अघशंसः ) पाप की शिक्षा देने वाला, चोर पुरुष ( नः माकि: ईशत ) हम पर प्रभुत्व न करे । इति विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य
पदार्थ
[१] हमारे राष्ट्र के (ब्राह्मणासः) = ज्ञान को प्रधानता देनेवाले ब्राह्मण लोग तथा (पितरः) = राष्ट्ररक्षक क्षत्रियवर्ण (सोम्यासः) = सोम का सम्पादन करनेवाले हों। यह सोमरक्षण ही इन्हें 'ब्राह्मण व पिता' बनायेगा। सुरक्षित सोम ब्राह्मणों की ज्ञानाग्नि का ईंधन बनेगा तो क्षत्रियों को शक्ति सम्पन्न बनायेगा। ऐसा होने पर (अनेहसा) = निष्पाप ये (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (नः शिवे) = हमारे लिये कल्याणकर हों। ब्राह्मणों व क्षत्रियों के ठीक होने पर राष्ट्र में पाप नहीं फैलते। ऐसा राष्ट्र मंगलमय होता है। [२] इस राष्ट्र में (पूषा) = पोषण करनेवाला वैश्य वर्ग (ऋतावृधः नः) = ॠत का, यज्ञ का वर्धन करनेवाले हम लोगों को (दुरितात् पातु) = दुर्गति से बचाये। अन्नाभाव के कारण राष्ट्र में भुखमरी ही न फैल जाये । वैश्यवर्ग 'कृषि, गोरक्षा व वाणिज्य' द्वारा सदा सुकाल बनाये रखे और यज्ञों का वर्धन करे। इस प्रकार प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! आप हमारा रक्षा रक्षण करिये। (अघशंसः) = बुराई का शंसन करनेवाला (नः) = हमारा (माकिः) = मत (ईशत) = ईश बन जाये । हम इसकी बातों में आकर पाप की ओर न बहक जायें।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे राष्ट्र के ब्राह्मण सोमरक्षण द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करें। क्षत्रिय सोमरक्षण द्वारा शक्ति-सम्पन्न हों। ये दोनों राष्ट्र को निष्पाप बनायें। वैश्य अन्नाभाव को न होने देकर हमें दुर्गति से बचायें। यज्ञों के वर्धन का कारण बनें। हम अघशंस लोगों से बहकाये जाकर पाप में न फँस जाएँ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे विद्वान लोक तुम्हाला विद्या व विनय शिकवितात आणि विद्युत व भूगर्भविद्येने सुखी करतात, अधर्माचरणापासून दूर ठेवतात, तसेच जो राजा चोर इत्यादी दुष्टांपासून निरंतर रक्षण करतो त्या सर्वांची तुम्ही निरंतर सेवा करा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sagely scholars, parental seniors, men of peace and good will, holy and blissful sun and earth which hurt no one, protective and promotive powers of nature and humanity, all observers and protectors of truth and law, may, we pray, protect us from sin and evil and defend us against violence. May no evil and violent power, no thief, rule over us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men deal with one another -is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Brahmanas-knowers of God and the Vedas! who are like our fathers, kind towards all people and men of peaceful disposition, keep us away from all unrighteousness. Teach and preach to us, which are promoters of truth in such a manner that the non-violent sun and earth may conduce to our welfare. The nourisher endowed with knowledge and humility may protect us from all wicked conduct, so that a thief or dishonest person may not master us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should serve those enlightened persons, who may endow you with knowledge and humility and make you happy with the science of electricity and Geology etc. and keep you away from all unrighteous conduct and the king, who protects you constantly from thieves and robbers.
Foot Notes
(ब्राह्मणास:) वेदेश्वरवेत्तारः । तद् वेदवा स ब्राह्मण ब्रह्म अधीते तद्यतीते तदवेदं । अषाध्यायाम् अप् प्रत्यय: = Knowers of the Vedas and God' = ( पितरा) पितर इव प्रजानामुपरि कृपालव: । पा-रक्षणे (अदा.) = Gracious or kind towards the people. (अनेहसा) अहिंसके । एहः इति - क्रोधनाम (NG 2, 13) क्रोधो हिंसाया एवं रूपम् । तद् रहितो = Non-violent (अघशंसः) स्तेन: । अघशंस इति स्तेननाम (NG 3, 24 ) = Thief or dishonest person.
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