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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 11
    ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - इषवः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒प॒र्णं व॑स्ते मृ॒गो अ॑स्या॒ दन्तो॒ गोभिः॒ संन॑द्धा पतति॒ प्रसू॑ता। यत्रा॒ नरः॒ सं च॒ वि च॒ द्रव॑न्ति॒ तत्रा॒स्मभ्य॒मिष॑वः॒ शर्म॑ यंसन् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्णम् । व॒स्ते॒ । मृ॒गः । अ॒स्याः॒ । दन्तः॑ । गोभिः॑ । सम्ऽन॑द्धा । प॒त॒ति॒ । प्रऽसू॑ता । यत्र॑ । नरः॒ । सम् । च॒ । वि । च॒ । द्रव॑न्ति । तत्र॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । इष॑वः । शर्म॑ । यं॒स॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णं वस्ते मृगो अस्या दन्तो गोभिः संनद्धा पतति प्रसूता। यत्रा नरः सं च वि च द्रवन्ति तत्रास्मभ्यमिषवः शर्म यंसन् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्णम्। वस्ते। मृगः। अस्याः। दन्तः। गोभिः। सम्ऽनद्धा। पतति। प्रऽसूता। यत्र। नरः। सम्। च। वि। च। द्रवन्ति। तत्र। अस्मभ्यम्। इषवः। शर्म। यंसन् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्भूमिः कीदृग्वेगवती वीराश्च किमर्थं सङ्ग्रामं कुर्वन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! या गोभिः सन्नद्धा प्रसूता सती भूमिर्मृग इव पतति, अस्या मध्ये दन्तो वर्त्तते या सुपर्णं वस्ते यत्रा नरश्च सं द्रवन्ति वि द्रवन्ति च तत्रेषवोऽस्मभ्यं शर्म यथा यंसन् तथाऽनुतिष्ठत ॥११॥

    पदार्थः

    (सुपर्णम्) शोभनं पर्णं पालनं यस्य तम् (वस्ते) आच्छादयति (मृगः) यो मार्ष्टि तद्वत् (अस्याः) प्रजायाः (दन्तः) येन दंशति सः (गोभिः) किरणैर्धेनुभिर्वा (सन्नद्धा) सम्यग्बद्धा (पतति) गच्छति (प्रसूता) उत्पन्ना सती (यत्रा) यस्मिन् सङ्ग्रामे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नरः) मनुष्याः (सम्) (च) (वि) (च) (द्रवन्ति) गच्छन्ति (तत्र) (इषवः) बाणाः (शर्म) सुखम् (यंसन्) यच्छन्तु ॥११॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! या भूमिः परमेश्वरेण पालनाय निर्मिता मृगवत्सद्यो धावति यदर्थं भूरि सङ्ग्रामो भवति तस्याः प्राप्तौ वीरतां सङ्गृह्णन्तु ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भूमि कैसी वेगवाली है और युद्ध करनेवाले युद्ध क्यों करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (गोभिः) किरण वा धेनुओं से (सन्नद्धा) अच्छे प्रकार से बंधी और (प्रसूता) उत्पन्न हुई भूमि (मृगः) मृग के समान (पतति) जाती है (अस्याः) इसके बीच (दन्तः) जिससे डशते हैं वह दाँत वर्त्तमान है जो (सुपर्णम्) सुन्दर पालना करनेवाले को (वस्ते) उढ़ाता है और (यत्रा) जिस संग्राम में (नरः) योद्धा नर (च) भी (सम्, द्रवन्ति) अच्छे प्रकार दौड़ते हैं (च) और (वि) विशेष धावन करते हैं (तत्र) वहाँ (इषवः) बाण (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शर्म) सुख जैसे (यंसन्) देवें, वैसा अनुष्ठान करो ॥११॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो भूमि परमेश्वर ने पालना के लिये बनाई है और मृग के समान शीघ्र जाती है तथा जिसके लिये सङ्ग्राम होता है, उसकी प्राप्ति के निमित्त वीरता का संग्र­ह करो ॥११॥

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    विषय

    वाणों का वर्णन । पक्षान्तर में भूमि और भूमिपालों का महत्व पूर्ण वर्णन ।

    भावार्थ

    इषवः देवताः । यह ‘इषु’ अर्थात् वाण ( मृगाः ) सिंह के समान वेग से आक्रमण करने वाला, वा अति शुद्ध, चमचमाता हो । वह ( सुपर्ण ) उत्तम वेग से जाने योग्य पंखों को ( वस्ते ) धारण करता है । ( अस्याः दन्तः ) इस वाण का, काटने का साधन दांत के समान तीक्ष्ण फला हो वह ( सं-नद्धा ) खूब दृढ़ता से बंधा हो, और ( गोभिः प्र-सूता पतति ) धनुष की डोरियों से प्रेरित होकर दूर जाता है । ( यत्र ) जिस संग्राम में ( नरः सं द्रवन्ति च वि द्रवन्ति च ) मनुष्य मिलकर वेग से दौड़ते और विविध दिशाओं में भागते हैं (तत्र) उस युद्ध काल में भी ( अस्मभ्यम् ) हमें वे ( इषवः ) वाण गण ( शर्म यंसन् ) शरण प्रदान करते हैं। भूमिपक्ष में – यह भूमिः ( गोभिः सन्नद्धा ) गौ आदि पशुओं, से अच्छी प्रकार व्याप्त, वा सूर्य की किरणों से सुदृढ़ होकर भी ( प्र-सूता ) उत्तम २ अन्नों को उत्पन्न करने हारी होकर ( पतति ) ऐश्वर्य-समृद्धि से युक्त होती है । ( मृगः ) सिंह के समान पराक्रमी, ( दन्तः ) दन्त के समान शत्रु का छेदन भेदन करने में समर्थ बलवान् पुरुष ( अस्याः ) इसके ( सुपर्ण ) सुख से पालने वाले वा इस को पूर्ण समृद्ध करने वाले शस्त्र-बल और वैश्य जन को ( वस्ते ) अपने नीचे बसाये, उसे अपनी सेवा में रक्खे । और ( यत्र ) जिस भूमि में लोग एकत्र होते वा विविध दिशाओं में जाते हैं उसी पृथिवी पर (इषवः) वाण वा इच्छानुकूल प्राप्त काम्य पदार्थ में हमें ( शर्म यंसन् ) सुख प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    इषवः

    पदार्थ

    [१] बाण अग्रभाग में कङ्क-पक्षी के पंख को लगाते हैं, इस से बाण की गति में तीव्रता आ जाती है। यह इषु (सुपर्णम्) = पंख को (वस्ते) = धारण करता है । (अस्याः) = इस इषु का (दन्त:) = दाँत के समान आकारवाला अग्रभाग (मृगः) = शत्रुओं को ढूँढता-सा है [मृगयमाण:] इन्हें विद्ध करने की कामनावाला होता है । (गोभिः सन्नद्धा) = गोविकार स्नायुओं से सम्यग् बद्ध हुआ-हुआ यह इषु, (प्रसूता) = प्रेरित हुआ हुआ, (पतति) = शत्रुओं पर पड़ता है। [२] (यत्र) = जहाँ युद्ध में (नरः) = मनुष्य (संद्रवन्ति) = मिलकर इधर-उधर गतिवाले होते हैं, (च) = और (विद्रवन्ति च) = विविध दिशाओं में अलग-अलग भाग खड़े होते हैं, तत्र वहाँ रणांगण में (इषवः) = ये बाण (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (शर्म यंसन्) = सुख को देनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- अग्रभाग में पंख को धारण करनेवाला यह बाण प्रेरित होकर शत्रुओं पर पड़ता है। शत्रुओं में यह भगदड़ मचा देता है। यह बाण रणांगण में हमारे लिये सुखकर हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! परमेश्वराने जी भूमी पालन करण्यासाठी निर्माण केलेली आहे, जी मृगासारखी शीघ्रतेने फिरते तसेच जिच्यासाठी मोठमोठी युद्धे होतात तिच्या प्राप्तीसाठी वीरता अंगी बाणवा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sun wears the beauty of a divine bird and flies. The earth, its mountain tops illuminated by sun rays, moves on, urged and energised by the sun. On this earth where men run around together yet scattered, may the arrows of defence and protection and the light of the sun provide us a home of peace and stability.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How swift-moving is earth and why do the heroes fight-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! this earth controlled or well connected by the sunt rays and the cows revolves like a deer. There are laws in it and among the people which are working properly and which cover or preserve a good protector. This earth, where warriors run together in different directions, you should act in such a manner that the armor etc. may bestow happiness upon us and we may be safe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should gather heroes for the preservation of the land which has been made by God for nourishing all creatures, which revolves swiftly like the deer and for which many battles are fought.

    Translator's Notes

    दन्तः is from दमु-उपशमे (दिवा.) हसिमृग्निन्वामिदमिलूपूधूविभ्यस्तन् (Un. K. 3, 86). Rishi Dayananda Sarasvati in his commentary on the Yajurveda 29.48 has explained accordingly as दाम्यते जनैः सः ।

    Foot Notes

    (सुपर्णम्) शोभनं पर्णं पालनं यस्य तम् । सु + पु-पालनपूरणयोः । (जुहो.) अत्रपालनार्थे । = Good protector. (धस्ते) आच्छादयति । वसआच्छादने (अदा. ) = Covers, protects. (दन्तः) येन दर्शति स:। = Which bites or punishes the guilty.

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