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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 16
    ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - इषवः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑संशिते। गच्छा॒मित्रा॒न्प्र प॑द्यस्व॒ मामीषां॒ कं च॒नोच्छि॑षः ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ऽसृष्टा । परा॑ । प॒त॒ । शर॑व्ये । ब्रह्म॑ऽसंशिते । गच्छ॑ । अ॒मित्रा॑न् । प्र । प॒द्य॒स्व॒ । मा । अ॒मीषा॑म् । कम् । च॒न । उत् । शि॒षः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते। गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषां कं चनोच्छिषः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवऽसृष्टा। परा। पत। शरव्ये। ब्रह्मऽसंशिते। गच्छ। अमित्रान्। प्र। पद्यस्व। मा। अमीषाम्। कम्। चन। उत्। शिषः ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 16
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनापतिः सेनां किमाज्ञपयेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शरव्ये ब्रह्मशंसिते सेने ! त्वमवसृष्टा परा पताऽमित्रान् गच्छ प्र पद्यस्वाऽमीषां शत्रूणां कं चन मोच्छिषः ॥१६॥

    पदार्थः

    (अवसृष्टा) शत्रूणामुपरि निपतिता (परा) अस्मत्पराङ्मुखा (पत) (शरव्ये) ये शरान् व्याप्नुवन्ति तत्र साध्वि (ब्रह्मसंशिते) ब्रह्मणा वेदविदा सेनापतिना प्रशंसिते (गच्छ) (अमित्रान्) शत्रून् (प्र) (पद्यस्व) (मा) (अमीषाम्) परोक्षस्थानां मध्यात् (कम्) (चन) अपि (उत्) (शिषः) शिष्टं मा त्यज ॥१६॥

    भावार्थः

    सेनापतिः पूर्वं सेनां सुशिक्ष्य यदा सङ्ग्राम उपतिष्ठेत्तदा स्वसेनामाज्ञपयेद्यच्छत्रूणां मध्यादेकमपि शिष्टं मा त्यजेति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सेनापति सेना को क्या आज्ञा दे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शरव्ये) बाणों को व्याप्त होनेवालों में उत्तम (ब्रह्मशंसिते) वेद जाननेवाले सेनापति से प्रशंसा पाई हुई सेना ! तू (अवसृष्टा) शत्रुओं के उपर पड़ी हुई (परा) हम लोगों से पराङ्मुख (पत) जाओ तथा (अमित्रान्) शत्रुओं के समीप (गच्छ) पहुँचो (प्र, पद्यस्व) प्राप्त होओ अर्थात् शत्रुजनों पर चढ़ाई करो और (अमीषाम्) परोक्षस्थ शत्रुओं के बीच (कम्, चन) किसी को भी (मा) मत (उत्, शिषः) शेष छोड़ो ॥१६॥

    भावार्थ

    सेनापति पहिले सेना को अच्छी शिक्षा देकर जब सङ्ग्राम में उपस्थित हो, तब अपनी सेना को आज्ञा दे कि शत्रुओं के बीच से एक को भी न छोड़ ॥१६॥

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    विषय

    छोड़े हुए बाणवत् सेना का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( शरव्ये ) वाण दूर तक फेंकने में कुशल सेने ! वाण जिस प्रकार ( अव-सृष्टा परा पतति ) छूट कर दूर पड़ता है और शत्रुओं को पहुंचकर उनका नाश करता है उसी प्रकार हे सेने ! तू भी (अव-सृष्टा) शत्रु पर पड़कर (परा पत) दूर २ तक जा और हे (ब्रह्म-संशिते ) ‘ब्रह्म’, वेदज्ञ सेनानायक वा ‘ब्रह्म’ अर्थात् धनैश्वर्य की प्राप्ति के लिये अति तीक्ष्ण तू ( अमित्रान् गच्छ ) शत्रुओं को लक्ष्य करके जा, ( तान् प्रपद्यस्व ) उनतक पहुंच और ( अमीषां ) उनमें से ( कं चन मा उत् शिषः ) किसी को भी मत बचा रहने दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'शरव्या' इषु

    पदार्थ

    [१] हे (ब्रह्मसंशिते) = [मंत्रेण तीक्ष्णीकृते] विचारपूर्वक प्रयोग से शत्रु के लिये बड़ी तीक्ष्ण बनी हुई (शरव्ये) = शत्रुहिंसन में कुशल इषो ! (अवसृष्टा) = छोड़ी हुई तू (परापत) = सुदूरं शत्रुओं पर पड़। [२] (गच्छ) = शत्रुओं की ओर जा। (अमित्रान् प्रपद्यस्व) = उन अमित्रों को प्राप्त हो और (अमीषाम्) = उनमें से (कञ्चन) = किसी को भी (मा उच्छिषः) = अवशिष्ट मत कर सभी को तू समाप्त करनेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- विचारपूर्वक चलाया गया बाण शत्रुओं के लिये बड़ा तीक्ष्ण हो, यह सब शत्रुओं को समाप्त करनेवाला हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सेनापतीने प्रथम सेनेला चांगले शिक्षण द्यावे व युद्धात लढाईच्या वेळी आपल्या सेनेला आज्ञा करावी की, शत्रूच्या एकाही माणसाला सोडू नका. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O sharpest and fastest of missiles, tempered and tested by the best of defence scientists, shot and released, fly far, reach the target and fall upon the enemies. Spare none of them whatsoever even at the farthest distance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the Commander of an army order his army to do- is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men of the army! you who are expert in the art of archery, admired by the Commanded-in-Chief- and knowing the Vedas on persuasion, go afar, encounter the foes, achieving victory by slaying them. Let not even one of those distant foes escape.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The commander of an army should train his army well and when the time of war approaches, he should order his army not to allow even a single foe to escape.

    Foot Notes

    (शरव्ये) ये शरान् व्याप्तुवन्ति त्र साध्वि। = Army good in using arrows and weapons. (ब्रह्मसंशिते) ब्रह्मणा वेदविदा सेनापतिना प्रशांसिते । ब्रह्म सर्वविधः सर्वं वेदितुमर्हति । ब्रह्मा परिवृढ: श्रुतत: (NKT 1, 3, 8) यमेवामुत्रय्ये विद्यायै तेजो रसं प्रावृहत् तेन ब्रह्मा ब्रह्मा भवति (कौषीतको ब्राह्मणे 6, 11) = Admired by a commander of the army, who is well-versed in the Vedas.

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