ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 4
ते आ॒चर॑न्ती॒ सम॑नेव॒ योषा॑ मा॒तेव॑ पु॒त्रं बि॑भृतामु॒पस्थे॑। अप॒ शत्रू॑न्विध्यतां संविदा॒ने आर्त्नी॑ इ॒मे वि॑ष्फु॒रन्ती॑ अ॒मित्रा॑न् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठते इति॑ । आ॒चर॑न्ती॒ इत्या॒ऽचर॑न्ती । सम॑नाऽइव । योषा॑ । मा॒ताऽइ॑व । पु॒त्रम् । बि॒भृ॒ता॒म् । उ॒पऽस्थे॑ । अप॑ । शत्रू॑न् । वि॒ध्य॒ता॒म् । स॒व्ँम्वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने । आर्त्नी॑ इति॑ । इ॒मे इति॑ । वि॒स्फु॒रन्ती॒ इति॑ वि॒ऽस्फु॒रन्ती॑ । अ॒मित्रा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते आचरन्ती समनेव योषा मातेव पुत्रं बिभृतामुपस्थे। अप शत्रून्विध्यतां संविदाने आर्त्नी इमे विष्फुरन्ती अमित्रान् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठते इति। आचरन्ती इत्याऽचरन्ती। समनाऽइव। योषा। माताऽइव। पुत्रम्। बिभृताम्। उपऽस्थे। अप। शत्रून्। विध्यताम्। संविदाने इति सम्ऽविदाने। आर्त्नी इति। इमे इति। विस्फुरन्ती इति विऽस्फुरन्ती। अमित्रान् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते वीराः केभ्यः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे वीरपुरुषास्ते इमे संविदाने अमित्रान् विष्फुरन्ती आर्त्नी आचरन्ती योषा समनेव पुत्रं मातेवोपस्थे विजयं बिभृतां शत्रून् अप विध्यताम् ॥४॥
पदार्थः
(ते) द्वे (आचरन्ती) समन्तात् प्रियाचरणं कुर्वन्त्यौ (समनेव) समानमना इव। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (योषा) पत्न्यौ (मातेव) (पुत्रम्) (बिभृताम्) धरेताम् (उपस्थे) समीपे (अप) (शत्रून्) (विध्यताम्) ताडयतम् (संविदाने) प्रतिज्ञापालिके इव (आर्त्नी) गच्छन्त्यौ (इमे) (विष्फुरन्ती) कम्पयन्त्यौ (अमित्रान्) शत्रून् ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे वीरजना ! यथा समानप्रीतिसेविनी पत्नी पतिं माता पुत्रं वा सततं सुखयति तथा शस्त्रास्त्राभ्यां शत्रून्निवारयत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे वीर किनसे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे वीरपुरुषो ! (ते) वे दोनों (इमे) ये (संविदाने) प्रतिज्ञा पालनेवालियों के समान वा (अमित्रान्) शत्रुजनों को (विष्फुरन्ती) कंपाती (आर्त्नी) वेग से जाती और (आचरन्ती) सब ओर से प्रिय आचरण करती हुई (योषा) पत्नी स्त्री जैसे (समनेव) समान मनवाली, वैसे वा (पुत्रम्) पुत्र को जैसे (मातेव) माता, वैसे (उपस्थे) समीप में विजय को (बिभृताम्) धारण करें और (शत्रून्) शत्रुजनों को (अप, विध्यताम्) पीटें ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे वीरजनो ! जैसे समान प्रीति की सेवनेवाली पत्नी पति को तथा माता पुत्र को निरन्तर सुखी करती है, वैसे शस्त्र और अस्त्रों से शत्रुओं को निवारो ॥४॥
विषय
माता पिता के समान धनुष कोटियों और पार्श्ववर्त्ती सेनाओं का वर्णन ।
भावार्थ
( समना-इव योषा ) समान मन, वा एक चित्त हुई स्त्री जिस प्रकार अपने पति को और ( माता इव पुत्रं ) माता जिस प्रकार अपने पुत्र को ( आचरन्ती ) अपना प्रेम व्यवहार करती हुई (संविदाने) परस्पर ऐकमव्य होकर ( उपस्थे बिभृताम् ) अपने समीप, गोद में धारण करती है उसी प्रकार ( ते ) वे ( इमे ) ये दोनों (आर्त्नी ) धनुष् की कोटियां भी ( सं-विदाने ) एक साथ डोरी से मिल कर ( अमित्रान्-विस्फुरन्ती ) शत्रुओं का नाश करती हुई (शत्रून् अप विध्यताम् ) शत्रुओं को मार भगावें । एक ही पुरुष की प्रियस्त्री और प्रियमाता दोनों सहमति कर उसका प्रियाचरण करतीं उस को प्रेमालिंगन करती हैं उसी प्रकार शूरवीर के धनुष की कोटियों के तुल्य ( आर्त्नी ) शत्रुनाशक दायें वायें की दो सेनाएं उसकी रक्षा करें, शत्रु का नाश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
आर्ली (धनुष्कोटी)
पदार्थ
[१] (ते) = वे (आन) = धनुष्कोटियाँ समना (योषा इव) = समान मनवाली [समनस्का] स्त्री की तरह (आचरन्ती) = आचरण करती हुई, जैसे वह स्त्री पति सान्निध्य को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार धनुष के सान्निध्य को न छोड़ती हुई ये धनुष्कोटियाँ, (माता पुत्रं इव उपस्थे) = माता जैसे गोद में बच्चे का धारण करती है। इसी प्रकार ये धनुष्कोटियाँ (बिभृताम्) = सैनिक [योद्धा] का धारण करती हैं । [२] (इमे) = ये (संविदाने) = परस्पर संज्ञानवाली होती हुईं, विसंवाद रहित होती हुई, धनुष्कोटियाँ (अमित्रान्) = अमित्रों को (विष्फुरन्ती) = हिंसित करती हुई (शत्रून्) = शत्रुओं को (अपविध्यताम्) = विद्ध करके दूर भगा दें।
भावार्थ
भावार्थ – धनुष्कोटियाँ योद्धा का धारण करनेवाली हों। परस्पर संज्ञानवाली होकर शत्रुओं को अपविद्ध करनेवाली हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे वीरांनो ! जसे समान प्रेम करणारी पत्नी पतीला व माता पुत्राला निरंतर सुखी करते तसे शस्त्रास्त्रांनी शत्रूंचे निवारण करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a young mother holds the baby in her lap with both hands, so may the two ends of the bow operative together in balance hold the string at both ends and shoot the arrow upon the enemies and thus scatter the unfriendly forces out of gear.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the heroes do for whom-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave persons! may the two extremities of the bow making the foes tremble and uphold victory which is like two ladies, a loving wife (of one mind with her husband) doing always what is dear to her husband and a mother nursing the child upon her lap, who (both of them) are like the ladies keeping their promise and going about their duties.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Two similes are used in the mantra. As a loving and serving wife gladdens her husband constantly and as a mother gladdens her son, so keep away from enemies with powerful weapons and missiles and enjoy happiness.
Foot Notes
(आचरन्ती) समन्तात्प्रियाचरणं कुर्वन्त्यो = Doing what is dear and agreeable. (संविदाने) प्रतिज्ञापालिके इव । = Like two ladies keeping their promise. (आत्नी) गच्छन्त्यों । ऋ गतौ (क्रया.) = Going about. (विष्फुरन्ति) कम्पयन्त्यौ। वि + स्फुर-स्फुरणे (तुदा) = Shaking, making tremble.
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