ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 17
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः, युद्ध भूमिर्ब्रह्मणस्पतिरदितिश्च
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
यत्र॑ बा॒णाः सं॒पत॑न्ति कुमा॒रा वि॑शि॒खाइ॑व। तत्रा॑ नो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒रदि॑तिः॒ शर्म॑ यच्छतु वि॒श्वाहा॒ शर्म॑ यच्छतु ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । बा॒णाः । स॒म्ऽपत॑न्ति । कु॒मा॒राः । वि॒शि॒खाःऽइ॑व । तत्र॑ । नः॒ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । अदि॑तिः । शर्म॑ । य॒च्छ॒तु॒ । वि॒श्वाहा॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र बाणाः संपतन्ति कुमारा विशिखाइव। तत्रा नो ब्रह्मणस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। बाणाः। सम्ऽपतन्ति। कुमाराः। विशिखाःऽइव। तत्र। नः। ब्रह्मणः। पतिः। अदितिः। शर्म। यच्छतु। विश्वाहा। शर्म। यच्छतु ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यत्र सङ्ग्रामे कुमारा विशिखाइव बाणाः सम्पतन्ति तत्रा नो यथा ब्रह्मणस्पतिर्विश्वाहा शर्म यच्छत्वदितिः शर्म यच्छतु तथा विधेहि ॥१७॥
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन् (बाणाः) (सम्पतन्ति) (कुमाराः) कृतचूडाकर्माणः (विशिखाइव) शिखारहिता इव (तत्रा) तस्मिन् सङ्ग्रामे। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (ब्रह्मणः) धनस्य (पतिः) पालको धनकोशेशः (अदितिः) भूमिः (शर्म) सुखम् (यच्छतु) ददातु (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (शर्म) सुखम् (यच्छतु) ददातु ॥१७॥
भावार्थः
हे राजन् ! यदा सङ्ग्रामाय सेना गच्छेत्तदा केनापि पदार्थेन विना कस्याऽपि भृत्यस्य क्लेशो न स्यात्तथाऽनुतिष्ठतु। एवं कृते सति भवतो ध्रुवो विजयः स्यात् ॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् (यत्र) जिस सङ्ग्राम में (कुमाराः) कुमार अर्थात् जिनका मुण्डन हो गया है उन (विशिखाइव) विना चोटीवालों के समान (बाणाः) बाण (सम्पतन्ति) अच्छे प्रकार गिरते हैं (तत्रा) वहाँ (नः) हमारे लिये जैसे (ब्रह्मणः) धन के (पतिः) पालक धनकोश का ईश (विश्वाहा) सब दिनों (शर्म) सुख (यच्छतु) देवे और (अदितिः) भूमि (शर्म) सुख (यच्छतु) देवे, वैसे विधान करो ॥१७॥
भावार्थ
हे राजन् ! जब सङ्ग्राम के लिये सेना जावे, तब किसी पदार्थ के विना किसी भृत्य को क्लेश न हो, वैसा अनुष्ठान कीजिये, ऐसे किये पीछे आपका ध्रुव विजय हो ॥१७॥
विषय
विद्यार्थियों के तुल्य बाणों का वर्णन।
भावार्थ
जिस गृह में ( वि-शिखाः ) विना शिखा के, चूड़ा कर्म करने के उपरान्त मुंडित ( कुमाराः संपतन्ति ) बालक आते हैं वहां जिस प्रकार (ब्रह्मणः पतिः) वेद का पालक विद्वान् और (अदितिः ) माता पिता सदा ही ( शर्म यच्छन्ति ) सुख प्रदान करते हैं उसी प्रकार ( यत्र ) जिस रण में ( कुमारा: ) बुरी मार मारने वाले (वि-शिखाः ) विना शिखा वा विविध चोटियों या विशेष तीक्ष्ण शिखा वाले, पैने, ( बाणाः सम्पतन्ति ) बाण एक साथ बहुत से आ गिरते हैं ( तत्र ) वहां (ब्रह्मणः पतिः ) धनैश्वर्य, वेद और बड़े राष्ट्र का पालक ( अदितिः ) अखण्ड चरित्र और राज्य का स्वामी होकर ( नः शर्म यच्छतु ) हमें सुख शान्ति दे । ( विश्वा हा शर्म यच्छतु ) वह सदा ही हमें शान्ति दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
युद्धभूमि में रक्षण
पदार्थ
[१] (यत्र) = जहाँ युद्धभूमि में (बाणा:) = बाण (सम्पतन्ति) = लगातार पड़ते हैं [सम् - मिलकर] और (कुमारा:) = बड़ी बुरी तरह से मारनेवाले होते हैं। (विशिखाः इव) = विशिष्ट ही शिखावाले होते हैं, जिन बाणों के अग्रभाग १५वें मन्त्र के अनुसार 'आलाक्त' होते हैं। इन बाणों का जहाँ निरन्तर पतन हो रहा है, (तत्र) = वहाँ (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी (अदितिः) = [न दितिर्यस्मात्] न खण्डन होने देनेवाला प्रभु (नः) = हमारे लिये (शर्म यच्छतु) = रक्षण को व सुख को (यच्छतु) = दे । युद्ध विद्या से पूर्ण अभिज्ञ होकर हम अपना रक्षण कर सकें। [२] प्रभु (विश्वाहा) = सदा ही (शर्मयच्छतु) = हमारे लिये सुख को दें। वस्तुतः ज्ञान प्राप्ति के होने पर युद्धों का कम ही सम्भव होता है और युद्ध हो भी जाएँ तो हम व्यर्थ में मृत्यु को नहीं प्राप्त होते । ज्ञान हमारा रक्षण करता है।
भावार्थ
भावार्थ– विशिष्ट अग्रभागवाले, बुरी तरह से मारनेवाले बाण जहाँ निरन्तर पड़ रहे हैं, उन युद्धभूमियों में भी ज्ञान के स्वामी प्रभु हमें विनष्ट होने से बचायें ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जेव्हा लढाईसाठी सेना निघते तेव्हा सेवकांना कोणत्याही पदार्थांची टंचाई भासता कामा नये, अशी व्यवस्था कर. असे केल्याने निश्चित तुझा विजय होईल. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O ruler, where the young soldiers with shorn hair fall upon the enemy and showers of missiles rain down upon the targets, there let the controller of nation’s wealth provide us total security and let the mother earth provide us a safe and comfortable shelter, a shelter of all round security.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of orders given by C-in-C to its army-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! where the flights of arrows fail like boys whose locks are unshorn, may the treasurer give us financial help to carry on the righteous fight and may the earth give us happiness all the days. You should arrange in such a manner.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! when an army goes for a battle, let no warrior or attendant feel the lack of anything requisite and suffer on account of that, this is how you have to arrange things. By so doing, victory will be certainly yours.
Foot Notes
(ब्रह्मणः + पतिः) धनस्य पालको, धनकोशेश: = Treasurer of the State. (अदिति:) भूमिः । इय (पृथिवी) स्वदिति: (ऐतरेय ब्राह्मणे 1, 8) इयं पृथिवी वा अदिति: (कौषीतकी ब्राह्मणे 7, 6) गोपथ ब्राह्मणे उ. 1, 25 ) = Earth.
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